आशीष सागर दीक्षित
”आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर ”
– अदम गोंडवी
देश दलित व्यथा से उद्वेलित है। दलित चिन्तक और कामरेड से लेकर अल्पसंख्यक समुदाय मुखर होकर दलित शोषण पर अवसाद में चला जाता है। असल में ये दलित दुःख ही है या एक ऐसा चक्रीय उत्पात जिसमें थके – हारे लोग देश की नव ऊर्जा को गला देना चाहते हैं, लाल सलाम के पलीते से ! आखिर क्यों देश के वे इलाके इनकी गिद्ध निगाह से अछूते रह जाते हैं, जबकि इनमें से आधे से अधिक लोग आज सूचना तंत्र के ( मीडिया ) मानव कर्मी है !
आशीष की आंखों देखी- 8
गाँव-गिरांव की पगडण्डी में घट रहे सदी से इस जुल्म की कहानी भी कुछ ऐसी ही है ! – चलते है बुंदेलखंड के जिला हमीरपुर की मौदहा तहसील की ग्राम पंचायत गुसियारी और कपसा ! बाँदा से पश्चिम दिशा में बसा ये गाँव गुसियारी बुंदेलखंड की उस क्रूरता का शिकार है, जिसमें एक लोटे पानी की कीमत सर्दी और गर्मी में दलित और बसोर ( जमादार ) के लिए बार-बार आत्महनन करने सी है ! यह दलित और बसोर हर रोज, हर पल तिल-तिल के मरते हैं, पानी लेने की कवायद में… क्योकि यहाँ ‘ आज भी जिंदा है ठाकुर का कुआं ‘ !
अदम गोंडवी की ऊपर लिखी पंक्ति अपने आप में इस गुसियारी में चरित्रार्थ हो रही है ! बीती 25 जनवरी साथी विवेक सिंह कछवाह के साथ इस गाँव में पहुंचा ! अक्सर सुनते आये कि इस गाँव में दलित और बसोर कुएं में सामान्य जाति के साथ पीने का पानी नही भर सकते ! लेकिन जो खुली आँख से देखा वो वैचारिक तौर पर इस सच से भी ज्यादा वीभत्स है !
गुसियारी ( मौदहा ) के निर्वाचित ग्राम प्रधान हैं इसरार अहमद खान ! कुल आबादी है करीब 14,000 और मतदाता हैं लगभग 3500 महिला- पुरुष ! ग्राम पंचायत में 70 से अधिक हैन्डपंप लगे हैं, पर क्या मजाल जो कोई उसका पानी गले से नीचे उतार ले ! मिट्टी में इतना खार है कि नमक के मारे हैण्डपम्प के पाइप गल चुके हैं ! बावजूद इसके इनमें भी दलित और बसोर पानी नहीं भर सकते ! इतनी बड़ी आबादी में गाँव के बाहर एक मात्र कुआँ है, जिसका पानी मीठा है ! इस गाँव में 70 फ़ीसदी आबादी मुस्लिम खान लोगों की है, शेष में दलित और बसोर ! गिने-चुने यादव, ठाकुर हैं ही नहीं पर सामंती सिस्टम जिंदा है।
दलित उत्पीड़न से आहत होकर पठानकोट की रहवासी सुमित्रा ने अपने नातेदार से कपसा में 4 हैण्डपम्प लगवाये, लेकिन उनका पानी भी खारा हो गया। गुसियारी में इस सर्दी में सुबह – शाम पानी लेने वालों का मेला लगता है ! इस कुएं पर तब गर्मी में क्या होता होगा ? ‘ बुंदेला तेरा पानी गजब कर जाय, गगरी न फूटे चाहे खसम मर जाए ‘ ये बात इस गाँव में सही साबित है ! भूरी कहती है सदियाँ बीत गईं, हमारा मुकद्दर न बदला ! एक तुम्हार फोटू लेने से क्या हो जायेगा ? तस्वीर दिल्ली तक जाएगी पर हमें गाँव में रहना है !….जीना न हराम करवाओ !
मुझे बरबस भूरी के पैर छूने पड़े, उसे यह विश्वास दिलाया कि तुम मेरी माँ जैसी हो, मैं तुम्हें अछूत नहीं मानता, साथ चलो ! संवाददाता आपे से बाहर हुआ और उन्हें यह कहते हुए राजी किया कि
आप कुएं में न चढ़ना ! हम ऐसे ही देख लेंगे ! अगर नहीं साथ दिए तो आपके शोषण को ऐसा लिखेंगे कि नाहक सब बिगड़ेगा ! संपत की बड़ी बिटिया कैमरे के सामने नहीं आई ! एक और बसोर परिवार के घर ताला जड़ा था ! जब हम इन्हें इस खानवादी सामंती कुएं में लेकर गए तब निगाह शर्मिंदा हो गई ! गाँव से तीन किलोमीटर बाहर बना यह दो सौ साल पुराना कुआं, आज भी अछूत और दलित के फासले को बरकरार किये है ! दोनों दलित महिलाओं को पहले से पानी भर रहीं मुस्लिम महिलाओं ने कुएं पर चढ़ने नहीं दिया ! इन्हें प्लास्टिक के डिब्बे/ कलसे में ऊपर से पानी डालकर दिया गया !
मुस्लिम खान महिला कहती है कि अरसा पहले एक बसोरिन कुएं में चढ़ी थी पानी भरने। मर्यादा भंग हुई तो उसकी मौत हो गई ! भूरी और संपत का परिवार और पीढ़ी सदी यह जुल्म झेल रही है अन्य दलितों के साथ ! भूरी कहती है कि
निकट भविष्य में वे इस गाँव में नहीं रहेंगी। रोज-रोज मरने से बेहतर है देहरी छोड़ देना !
वही साथी लेखचंद्र त्रिपाठी कहते हैं हमारे गाँव गौरीकला ( जसपुरा ) बाँदा में भी एक हैडपंप दलित जाति के लिए अलग कर दिया गया है, उसमें सवर्ण पानी नहीं भरते हैं !
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को !
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में,
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में !
बाँदा से आरटीआई एक्टिविस्ट आशीष सागर की रिपोर्ट। फेसबुक पर ‘एकला चलो रे‘ के नारे के साथ आशीष अपने तरह की यायावरी रिपोर्टिंग कर रहे हैं। चित्रकूट ग्रामोदय यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। आप आशीष से [email protected] पर संवाद कर सकते हैं।