सत्येंद्र कुमार यादव
मार्च 2009 में ईटीवी न्यूज से जुड़ा। फिर मुझे रायपुर से हैदराबाद जाना हुआ। चूंकि मैं नया-नया था इसलिए सबकी खूबियों की जानकारी मुझे नहीं थी। जब खबर की पैकेजिंग करना सीख रहा था, तो भोला दत्त असनोड़ा सर समेत कई लोगों ने बताया कि पैकेज बनाते वक्त आप कीर्ति दीक्षित से मदद ले सकते हैं। मैंने वही किया, कीर्तिजी से मदद लेता रहा। काम का दबाव कितना भी हो कुछ पूछने पर बता देती थीं। यही नहीं समझ नहीं आने पर उसे करके बताती थीं। अक्सर मैं देखता हूं कि कई लोग इस क्षेत्र में ऐसे हैं, जिन्हें रुटीन काम से ज्यादा कुछ करने के लिए कह दीजिए तो मुंह ऐसे बना लेते हैं, जैसे उनका कुछ खो गया है या वो बीमार हो गए हों। कीर्ति दीक्षित में ये बात नहीं थी।
कीर्ति अब किसी मीडिया हाउस में नहीं हैं। अपनी छोटी सी एक कंपनी चलाती हैं। अच्छी खबर ये है कि भाग-दौड़ भरी जिंदगी के बीच कीर्ति दीक्षित ने ‘जनेऊ’ नाम से एक उपन्यास लिखा है। जिसका विमोचन 23 जुलाई को होने वाला है। जून 2016 में कीर्ति जब बदलाव बाल क्लब में आई थीं, उस वक़्त badalav.com की टीम से ‘जनेऊ’ के बारे में जिक्र किया था। कीर्ति ने बताया कि, ये उपन्यास बुन्देलखण्ड की आंचलिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस उपन्यास में आप पढ़ेंगे कि गोकरन नाम का एक युवक, जो सवर्ण वर्ग से आता है, रोजमर्रा की जिंदगी में कैसे जीता है। समाज में उसके प्रति क्या नजरिया है और इस माहौल में उस युवक की क्या मनोदशा है? गांव और समाज में बढ़ती दूरियां, इतिहास का बदला वर्तमान में क्यों ? जैसे मुद्दों पर सवाल उठाया गया है।
कीर्ति दीक्षित ने ‘जनेऊ’ उपन्यास की कथावस्तु को सोशल मीडिया पर भी साझा किया। उन्होंने लिखा- बुन्देलखण्ड की आंचलिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह उपन्यास कथामात्र न होकर एक ऐसी मनोवृत्ति है, जो धीमे जहर की भाँति समाज को निगलती जा रही है। गाँव की सरल सहज गलियों में असमानता, घृणा एवं आवेश के ऐसे पत्थरों का समावेश हो गया है, जो प्रतिपल इस धरती को रक्तरंजित करने में लगे हैं। प्रस्तुत कथा एक ऐसे सवर्ण युवक गोकरन की है, जो समाज के नियमों में असहाय खड़ा, अपना सर्वस्व समाप्त होते देखता है। उसके पिता हल्केराम, जो आजीवन समाजहित के लिए, अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर रहे, अन्ततः अपमान की ज्वाला उन्हें लील जाती है। गरीबी एवं समाज के कुप्रपंचों में परिवार समाप्त प्राय हो जाता है, तब उस युवक के मन में घृणा एवं निर्लिप्तता के कैसे भाव जन्म लेते हैं, इसका सजीव दृश्यांकन है।
ये उपन्यास एक विमर्श है कि क्या इतिहास के नाम पर वर्तमान को सजा दी जा सकती है? सियासत भी इतिहास के पन्ने, अपनी सहूलियत के अनुसार पलटती है। उसमें तो दूध के लिये बिलखता द्रोणपुत्र भी है और कर्ण भी, सुदामा भी है और एकलव्य भी। कथित तौर पर हम समानता में विश्वास करते हैं, लेकिन समानता है कहाँ? योग्यता तो आज भी कराहती रंगभूमि में खड़ी है। बस अन्तर यही है कि तब सूतपुत्र कर्ण था और आज कोई और-तैयार रहें, एक और इतिहास लिखा जा रहा है और अपमान की लेखनी से लिखा इतिहास कुरुक्षेत्र की पटकथा ही लिख सकता है।
सत्येंद्र कुमार यादव, एक दशक से पत्रकारिता में सक्रिय । माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्विद्यालय के पूर्व छात्र । सोशल मीडिया पर सक्रियता । मोबाइल नंबर- 9560206805 पर संपर्क किया जा सकता है।
फागुन के महिना में खेत खाली डरे… कीर्ति दीक्षित की रिपोर्ट… पढ़ने के लिए क्लिक करें
सभी साथियों का बहुत बहुत आभार, मैं कृतज्ञ हूँ जो इस प्रकार के सम्मान से मुझे नवाजा, जितना भी धन्यवाद करूँ कम है ….