फागुन के महिना में खेत के खेत खाली डरे… छाती फटत

Untitled (1)कीर्ति दीक्षित

‘का बताएं बेटा मर रहे… सब सरकार तो सरकार इसुर तक दुश्मन बनो बैठो किसान को तो , देख लेओ फागुन के महिना में खेत के खेत खाली डरे, दिखे सें छाती फटत, धूरा उड़ रइ…’ कमोबेश हर किसान की यही कहानी है और यही उत्तर। रामप्रकाश से ऐसा ही उत्तर मिला।

तस्वीर में दिख रहे  रामप्रकाश बुंदेलखंड के उमरिया निवासी हैं, कहने को इनके पास 28 बीघे ज़मीन है, लेकिन इन्हें देखकर स्थिति का अंदाजा आप लगा सकते हैं। इन तस्वीरों में दिख रहे खेत उसी वसंत ऋतु के हैं, जो ऋतुओं का राजा कहा जाता है जिसकी परिकल्पना लहलहाते खेत, और पीली चुनरिया ओढ़े धरती से की जाती है, लेकिन इन तस्वीरों को देखकर बसंत की परिभाषा बदलने को जी चाहता है। फागुन में खेत सूखे पड़े हैं, देश की सरकारों की आँखों का पानी तो मर ही चुका है , ऐसा लगता है जैसे यहाँ बहती हवा का पानी भी सूख चुका है।

कमोबेश यही स्थिति हरेक खंड की है। जिनके पास सिंचाई के साधन हैं, उन्होंने खेत बो लिए लेकिन पशुओं को पीने को पानी नहीं खाने को चारा नहीं इसलिए उनको भी आज़ाद कर दिया गया। फलतः जो खेत हरे दिखते भी हैं, उन पर भूखे पशुओं की मार पड रही है। चारों ओर से बस  मुसीबतें ही मुसीबतें। मुआवजे के नाम पर किसी को 1500 किसी को 700 यहां तक कि किसी को 200 रुपये के चेक सरकारी मदद के तौर पर प्राप्त हुए हैं। वो भी केवल उन्हें जो थोड़े संपन्न हैं, गरीबों की तो सुनता ही कौन है।sukhi mitti

लाल किले की प्राचीरें भी अब उन लम्बे-लम्बे वायदों के लिए नहीं टोकतीं जो कभी झंडे तले खड़े होकर सरकारों ने किये थे क्योंकि वे भी जानती हैं ऐसी बातें केवल यहीं के लिए हैं, ज़मीन पर तो बस उड़ती धूल और उसमें उड़ती किसान की जिंदगियां। पिछले दिनों एक रजिस्ट्रार कार्यालय में जाना हुआ था, वहां बेचने वाला सिर्फ किसान था और खरीदने वाला नेता, बिल्डर जैसी प्रजाति के लोग। हरी राम से बात की तो कहने लगा- पेट में गांठें कब तक लगायें, कब तक अपने पैबंदी कुर्तों से अपनी इज्ज़त बचायें , आखिरकार कर्ज में डूबे हैं, पुरखन की थाती कोऊ ख़ुशी सें नई बेंचत। हरिराम ने भी जमीन बेचने का फैसला कर लिया, हरिराम अपनी पुरखों की जमीन बेचने आया था। आँखों में तो जैसे पुरखों की सामूहिक पीड़ा उतर आई हो और काँधे पर मैला पैबंदी तौलिया, जिससे बार बार अपने सूखे चेहरे के पसीने को पोछ रहा था। रजिस्ट्रार दफ्तर की कुर्सियां खाली थीं, लेकिन फिर भी वो पहले कुर्सियों की ओर देखता फिर चारों ओर, अंततः वह जमीन पर पाँव सिकोड़कर बैठ गया । सबसे महत्वपूर्ण बात उस पूरे दो बीघे की जमीन की कीमत दो लाख मिली और जिसने खरीदी वो रियल स्टेट का व्यवसायी था, उसने उसी जमीन को टुकडे टुकड़े करके दस लाख में बेचा।

umariyaये कोई काल्पनिक कहानी नहीं सत्य है, ऐसे ना जाने कितने हरिया, रामलाल, सुखिया अपनी धरती को नम आँखों से विदाई देते हैं। रजिस्ट्रार के दफ्तरों में सैकड़ों हाथ बांधे किसान अपनी बेबसी को कंधे पे धरे खड़े रहते हैं। आज जितनी दयनीय स्थिति अन्नदाता की है, शायद ही किसी वर्ग की हो। कुदरत तो कहर बरपाती ही है… हम, आप और हमारी सरकारें भी किसानों की उपेक्षा करने में पीछे नहीं।

सूखे से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्णाटक, गुजरात सबसे अधिक पीड़ित क्षेत्र हैं, और जहाँ खेती भाग्य से बच गयी ओलावृष्टि ने जान निकाल ली। लगभग 70 से 75 प्रतिशत किसान कर्ज में डूबा है, और इस कर्ज के कारण अब किसान या तो आत्महत्या कर रहे हैं या फिर मजदूरी की खोज में बड़े शहरों  की ओर पलायन कर रहे हैं। महाराष्ट्र के विदर्भ, मराठावाड़ और बुन्देलखण्ड तो अब जाने ही जाते हैं-किसानों की आत्महत्याओं और सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए। बड़े बड़े पैकेज घोषित होते हैं लेकिन धरातल पर स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। भ्रष्टाचार का सांप पहले ही सब लील लेता है। दूसरी तरफ जो फसल होती है उसका पर्याप्त मूल्य किसानों तक नहीं पहुँच पाता। या तो बिचौलिए खा जाते हैं, या बाजार मंदा पड़ जाता है।

केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने संसद में बताया था की 3.32 लाख हेक्टेयर कपास की फसल व्हाइट फ्लाई की वजह से नष्ट हो गयी। इस पर किसानों ने आन्दोलन भी किया, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। प्रधानमंत्री कृषि क्षति की शर्त को 33 प्रतिशत कर दिया गया, सहायता राशि  भी 50 प्रतिशत बढा दी गयी, परन्तु विडम्बना यही है कि इस राशि से किसानों को कम भ्रष्टाचारियों को ज्यादा आश्रय प्राप्त हो गया। बड़े बड़े भाषणों और संरक्षण का दौर जारी रहता है और हजारों क्विंटल अनाज खुले में सड़ जाता है। यूपी के चित्रकूट जिले के गाँव के पढ़े लिखे युवा कहते हैं – “इंसानों के लिए रोटी नहीं है, पशुओं के लिए पानी नहीं, दवा नहीं, रोजगार नहीं, राहत नहीं जीवन कटे तो कैसे। कहाँ जाएँ किससे भीख मांगें कोई सुनने वाला भी नहीं। खरीफ की फसल चौपट हो ही गई और रबी की बुआई भी ना हो सकी। रोजगार गारंटी योजना में काम करो तो महीनों तक मजदूरी नहीं मिलती और मिलती भी है तो ठेकेदारों को आधी चढ़ानी पड़ती है।अब कोई बताये हम जैसे लोगों के लिए मौत के अलावा कौन सा रास्ता बचा है ।” क्यों किसी का कलेजा नहीं पसीजता? क्यों हम चिकने घड़े बने हुए है?


kirti dixit profile कीर्ति दीक्षित। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले के राठ की निवासी। इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट रहीं। पांच साल तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों में नौकरी की। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता। जीवन को कामयाब बनाने से ज़्यादा उसकी सार्थकता की संभावनाएं तलाशने में यकीन रखती हैं कीर्ति।


50 सालों से खेतों में ही है उसका बसेरा… पढ़ने के लिए क्लिक करें