कभी यहां शेर रहते थे, आज राजनीति के ‘लकड़बग्घे’

फोटो- एन सिंह राजपूत
फोटो- एन सिंह राजपूत

कुमार सर्वेश

यहां धान का कटोरा है, प्राकृतिक सौंदर्य की वनदेवी है, खनिज संपदा के पहाड़ हैं, जड़ी-बूटियों के जंगल हैं, हाथ-पांव कट जाने के बावजूद अब भी इतने झूमते हुए पेड़ हैं कि उनकी लकड़ियों की कमाई से कई स्कूल और अस्पताल का खर्च निकल आए, कल-कल करती छोटी-छोटी नदियां हैं, प्राकृतिक झरने भी हैं लेकिन सदियों से यह इलाका प्यासा है। इतना प्यासा है कि अपनी प्यास का इज़हार करने के लिए अब उसके पास इच्छाशक्ति भी नहीं दिखाई पड़ती। इच्छाशक्ति होती तो अब तक अपनी भीषण आवाज़ से सत्ता के देवताओं के कान के पर्दे फाड़ दिए होते। सत्ता के देवता तो अपने देवलोक में नशे में चूर होकर लखनऊ से लेकर दिल्ली तक बेसुध पड़े रहते हैं लेकिन सत्ता सुंदरी के मदहोश कर देने वाले नृत्य को इस इलाके ने भारतीय राजाओं (काशी प्रांत), मुगलों और अंग्रेजों से लेकर कांग्रेसियों, समाजवादियों, भगवाधारियों, माया और मुलायम सबके युग में देखा है।

सबके राज आए और गए लेकिन यहां की सत्ता सुंदरी की हैसियत नहीं बदली। न तो बदली यहां के लोगों की जिंदगी। बस सत्ता सुंदरी के घुंघरुओं की थाप पर वो भी आधे सोते आधे जागते हुए झूमते रहते हैं और मन में सोचते रहते हैं कि वाह, अब आएगा फलां जी का राज, अब तो आ ही जाएगा सुशासन और बहने लगेगी विकास की बयार उनकी उजाड़ जिंदगियों में। लेकिन देखिए नासत्ता की कैसी मायाहै कि सबका थोड़ा बहुत कल्याणहो जाता है लेकिन यहां के लोगों का कल्याणकिसी सरकार में नहीं होता, न तो कभी उनकी उम्मीदों का राज’ (या उनकी लाज रखने वाला कोई नाथ’) आता है, न तो सत्ता की बेरुखी और बदनीयती ही किसी सरकार में जरा भी मुलायमपड़ती है। बदहाली और बदनसीबी जैसे उनके माथे पर जन्म से लिख दी गई है।dhaval dalia

बात हो रही है यूपी के चंदौली जिले की। खास तौर पर एक छोटी सी तहसील चकिया की बात कर रहा हूं। अगर मुझे अपने ‘मन की बात’ करनी होती तो मैं चकिया के अथाह दर्द को देश के सामने रख देता। उसके इतिहास, सौंदर्य और गुणों का बखान करके  कह देता कि शासन-प्रशासन के हुक्मरानों, राष्ट्रीय, प्रांतीय और क्षेत्रीय राजनीति के सूरमाओं और आकाओं, ज़रा अपनी वनदेवी के आंचल की तो लाज रख लो… अब मन में टीस और तड़प है तो बात निकलेगी ही। दूर तलक जाए या ना जाए, इसकी चिंता नहीं है। सत्ता के नक्कारखाने मेरी ये आवाज़ राजनीति के ‘नाथ’ लोग सुन लें और इस क्षेत्र के लिए कुछ ‘ऐतिहासिक’ कर दें (जैसा कि देश के दूसरे हिस्सों में, यहां तक कि पड़ोसी मुल्कों तक में ‘ऐतिहासिक’ काम हमारी वर्तमान सरकार कर रही है) तो भी चकिया और चंदौली का कुछ भला हो जाए।

3यहां की जिस वनदेवी की मैं बात कर रहा हूं उसके आंगन में एक समय शेर खेला करते थे और बाघ अपनी बहादुरी को यहां के दूसरे खूंखार जंगली जानवरों के ऊपर आजमाया करते थे। लेकिन आजादी के बाद शेर और बाघ की खाल पहनकर सत्ता के सिंहासन पर बैठे राजनीति के ‘लकड़बग्घे’ वनदेवी को लुटते-पिटते बरसों तक देखते रहे और रंगे हुए ‘सियारों और सफेदपोश भेड़ियों’ के साथ मिलकर यहां जब-जब सत्ता मिली, जश्न मनाते रहे। वनदेवी के लिए कुछ नहीं किया। सिर्फ वनदेवी के भक्तों, अनुचरों और उसकी प्रजा को चिकनी-चुपड़ी बातों से भरमाते रहे। कभी कहा कि इस इलाके को टूरिस्ट स्पॉट बना देंगे, यहां विकास की गंगा बहा देंगे तो कभी कहा कि तुम लोग हमारी परिक्रमा करते रहो यहां एक दिन स्वर्ग जरूर उतार लाएंगे। स्वर्ग तो क्या यहां दिल्ली या लखनऊ वाले जन्नत के दरबार से मालपुए का एक टुकड़ा भी नहीं आया। कभी आया भी तो कुछ उनके चहेतों की जेब में चला गया और कुछ भ्रष्ठ नौकरशाही के गले में अटक गया। हां, नक्सलवाद को कुचलने के नाम पर यहां खूब माल आया लेकिन उसे कहां खा-पचा लिया गया, सीबीआई के नाना भी नहीं बता पाएंगे।

क्या-क्या कहूं। भारतेंदु हरिश्चंद्र कभी बहुत हाहाकार करते हुए लिखा ‘’हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई..’’। लेकिन मुझे चिंता भारत की उतनी नहीं है जितनी अपने चकिया की। भारत की चिंता तो प्रधानमंत्री मोदी जी कर रहे हैं। मैं तो बस इतना चाहता हूं कि अपने क्षेत्र चकिया और चंदौली की थोड़ी सी भी चिंता उनके गृहमंत्री राजनाथ सिंह कर लें या अपने मित्र मुलायम सिंह से कहकर भी चिंता करवा दें तो मुझे आचार्य चतुरसेन शास्त्री की तरह यह नहीं कहना पड़ेगा कि ‘दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी’। (साभार- फेसबुक वॉल से)

वरिष्ठ टीवी पत्रकार कुमार सर्वेश का अपनी भूमि चकिया से कसक भरा नाता है। राजधानी में लंबे अरसे से kumar sarveshपत्रकारिता कर रहे सर्वेश ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है। साहित्य से गहरा लगाव उनकी पत्रकारिता को खुद-ब-खुद संवेदना का नया धरातल दे जाता है।  

                                                                                                                                            

6 thoughts on “कभी यहां शेर रहते थे, आज राजनीति के ‘लकड़बग्घे’

  1. गृहमंत्री राजनाथ सिंह जी का गृह जिला है चंदौली ,उस पर जिस चकिया तहसील की वेदना का जिक्र सर्वेश भईया ने किया है, उसी तहसील में राजनाथ सिंह जी का गाँव भी है। बावजूद इसके अपने क्षेत्र के प्रति उदासीनता समझ से परे है। कमोवेश यही हाल हर जगह का है। मेरी समझ से, जहाँ के लोग सर्वेश भईया सरीखे जागरूक हैं, वहाँ के प्रबुद्ध लोगों को एकजुटता का परिचय देते हुए क्षेत्र के विकास की एक रूपरेखा तैयार कर के माननीय मंत्री जी को और खासकर PMO को सौंपना चाहिए। हो सकता है कि देश की चिंता के सामने एक क्षेत्र की, खासकर अपने क्षेत्र की अनदेखी हो गई हो, लेकिन इस पिछड़ेपन की वेदना को जीवित रखते हुए सकारात्मक सोच के साथ विकास के लिये नेतृत्वकर्ता की भूमिका में भी आने को तैयार रहना होगा।

  2. काश ! कोई आपकी भावना समझ कर हमारे क्षेत्र के लिये कुछ करे और इसे फिर से स्वर्ग बना दे |

  3. चकिया जहां कभी अकूत प्राकृतिक संसाधन था कमोवेश आज भी है। यहां का इतिहास,भूगोल दोनों सुंदर हैं बावजूद इसके यह विकास से कोसों दूर है। ऐसा भी नहीं कि यहां कद्दावर नेता न पैदा हुए हैं। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का घर है यहां लेकिन उनकी नजरे इनायत नहीं। मुलायम सिंह सैफई में विकास की गंगा बहा दिए। कल्पनाथ राय घोषी में चार चांद लगा दिए मगर राजनाथ सिंह अपने गृह जनपद को संवारने की जहमत उठाने से कतराते हैं। शायद चकिया की तकदीर में ही बदकिस्मती लिखी है कि सब कुछ होते हुए भी यहां कुछ नहीं है।

  4. कहीं का इतिहास सुंदर तो भूगोल खराब,कहीं का भूगोल सुंदर तो इतिहास खराब मगर चकिया की धरती का दोनों(इतिहास,भूगोल) शानदार रहा है। कभी अकूत प्राकृतिक संसाधनों से भरा यह क्षेत्र आज भी कमोवेश वैभवशाली है ही। चकिया की दुर्दशा पर “का पर करूं सिंगार पिया मोर आन्हर” वाली कहावत चरितार्थ होती है। पूर्व गृहमंत्री और अब रक्षामंत्री राजनाथ सिंह न तो मूलायम सिंह हो सकते हैं जो सैफई में विकास की गंगा बहा सके न ही कल्पनाथ राय जो घोषी में चार चांद लगा दिए। शायद चकिया की बदकिस्मती में ही रोना लिखा है जहां सब होते हुए भी कुछ नहीं है।

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