अनिमेष पाठक
बात दिसंबर 2015 के पहले हफ्ते की है। ऑफिस से काम जल्दी निबटाकर लगभग दौड़ता हुआ मैं मुनव्वर राणा के मुशायरे में पहुंचा था। पर ये क्या -मुनव्वर भाई नहीं आ रहे हैं! पता चला आज सुबह अचानक तबीयत ख़राब हो गई। दिल डूब गया। मैं वहाँ से चुपचाप निकल जाना चाहता था, बिना आयोजक मित्र की निगाह में आये… जो पंद्रह दिनों से लगातार मुझे रिमाइंडर दे रहे थे। अचानक मंच से अनाउंसमेंट हुआ-हमारे बीच आ रहे हैं निदा फ़ाज़ली। वाह! निदा जी को पढ़ा और ग़ज़लों में सुना तो बहुत था पर ये तोहफ़ा तो अचानक लॉटरी लगने जैसा था। कुछ ही देर में छोटे-छोटे क़दमों के साथ मुस्कुराते निदा हमारे सामने थे।
चाँद पर नुमाया कंधे तक आते चंद लंबे बालों के गुच्छे, सदियों को टटोलती गहरी आँखें। चेहरे पर थकान। काँपते होठों पर बच्चों की सी मुस्कान। ढीला-ढाला कोट-पेंट, जैसे जवानी के सूट में बुढ़ापे का बदन सिकुड़ कर समा गया हो। बस कुछ ऐसे ही आख़िरी बार मैंने निदाजी को देखा।
निदा फ़ाज़ली ने वो शाम अपने दोहों के नाम कर दी। फरमाइशी ग़ज़लें और नज़्में सुनाने के बाद वे बार-बार दोहों पर लौट आते। मैंने कहीं पढ़ा था दोहे उनके दिल के बहुत क़रीब थे। सीधे सरल लफ़्ज़ों में गहरी बात उतारना, मानो प्याली में दरिया उड़ेल देना। निदा साहब इस फ़न के माहिर थे। बात कहाँ से निकल रही है, इससे बड़ा फ़र्क़ पड़ जाता है। उनके दोहे कई बार पहले भी निगाहों से गुज़रे पर आज तो उनका ‘मालिक’ पूरी रौ में था। कितनी गहरी रचनाएँ हैं ये ! पहली मर्तबा समझा। दोहों की तारी में डूबते उतराते कब रात के 2 बज गए, पता ही नहीं चला। जाते निदा को देख सोच रहा था कि न जाने कब अगली मुलाक़ात होगी।
अब निदा के जाने की ख़बर ने दिल डुबा दिया। देर तक उनकी वो आख़िरी रिकॉर्डिंग देखता रहा। निदा साहब आपसे मुलाक़ात होगी, ज़रूर होगी, पीढ़ियों को होती रहेगी आपके दोहों में।
युग-युग से हर बाग़ का, ये ही एक उसूल
जिसको हँसना आ गया वो ही मट्टी फूल
पंछी मानव, फूल, जल, अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाँहों भर संसार
अनिमेष पाठक। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। लंबे वक्त तक ईटीवी से जुड़े रहे। इन दिनों टीवी 9 में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर। भोपाल में अपना घर बनाया और इन दिनों अहमदाबाद में डेरा डाले बैठे हैं।