जब, तुम खोद रहे होते हो खाई
अपने और उनके बीच
सिर पर टोकरा लिए
वो बना रहे होते हैं पुल।तुम जी लेते हो
उनके हिस्से की भी छाँव
बस धूप बची रहती है उनके हिस्से में
अट्टालिकाओं के स्वप्न
जो तुम्हारी आँख में पलते हैं
वो उनकी देह से ही ढलते हैंरोटियां उनकी थाली में कम
हमेशा भूखे तो तुम रहते हो
रोको इसे !एक दिन, जब चरम पर होगी तुम्हारी भूख
और ख़त्म हो जायेगी उनकी रसद
वो सब एक साथ तब्दील हो जाएंगे
सिपाहियों में
उन्हीं पुलों से पहुचेंगे वो तुम तक
डरो मत!
वो नुकसान नहीं पहुंचाएंगे
तुम्हारे महलों की नक्काशियों को
वो उठा लेंगे वहां से सारा राशन
बाँट लेंगे आपस में
आटा, दाल, चावल, चीनी, तेल नमकतुम्हारा क्या ?
तुम तो गोश्त पर ही जिंदा हो !
मृदुला शुक्ला। उत्तरप्रदेश, प्रतापगढ़ की मूल निवासी। इन दिनों गाजियाबाद में प्रवास। कवयित्री। आपका कविता संग्रह ‘उम्मीदों के पांव भारी हैं’ प्रकाशित। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपीं और सराही गईं।
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