डॉ विनोद कुमार
उत्तर प्रदेश में प्राइमरी स्कूलों की बदहाली के सिलसिले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले ने मानो उत्तर प्रदेश की उनींदी शिक्षा व्यवस्था को झकझोर कर जगा दिया हो। सवाल यह उठता है कि यदि कोर्ट का फ़ैसला लागू भी कर दिया जाए तो इससे क्या सरकारी स्कूलों की बदहाल तस्वीर बदल जायेगी? हमें इस बात पर गौर करना होगा कि उक्त बदहाली का सिलसिला तबसे प्रारम्भ होता है, जब से पब्लिक स्कूलों की बढ़ोतरी हुई। उससे पूर्व जब सरकारी स्कूलों के अतिरिक्त शिक्षा व्यवस्था में ‘पब्लिक’ स्कूल जैसा विकल्प नहीं था, (या कम था) तब सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था सीमित संसाधनों के बावजूद दुरुस्त थी। पब्लिक स्कूलों की बढ़ोतरी से ऐसा क्या हो गया कि सरकारी स्कूल धीरे धीरे गर्त में चले गए? सरकारी और पब्लिक स्कूलों की तुलना करने से हम वास्तविक स्थिति से परिचित हो पाएंगे।
शिक्षा का समाजवाद-5
प्रथमतः सरकारी स्कूलों में जहाँ मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी है वहीँ पब्लिक स्कूलों में बेहतर आधारभूत सुविधाएं हैं। आज़ादी के 69 साल बाद भी हम सरकारी स्कूलों के लिए स्वच्छ पेयजल, शौचालय, फर्नीचर और यहाँ तक कि ‘बाउंड्री वॉल’ की भी व्यवस्था नहीं कर पाए। वहीं पब्लिक स्कूलों में फ़िल्टर्ड पानी, स्वच्छ शौचालय, मानकों के अनुरूप बनाई गयी बिल्डिंग विद्यमान हैं।
सरकारी स्कूल बनाम पब्लिक स्कूल
सरकारी स्कूल
आधारभूत सुविधाओं का अभाव
स्वच्छ पेयजल, शौचालय, फर्नीचर की कमी
हर जगह स्कूलों में नहीं बाउंड्री वाल
कंप्यूटर, इंटरनेट का अभाव
स्मार्ट क्लासेज की कमी
बायोमेट्रिक एटेंडेंस का इंतज़ाम नहीं
शिक्षकों के पद रिक्त
गैर-शैक्षणिक कार्यों में ड्यूटी
पब्लिक स्कूल
स्वच्छ पेयजल, स्वच्छ शौचालय और अच्छा फर्नीचर
स्कूलों में बाउंड्री वॉल
शुरुआती कक्षाओं से ही कंप्यूटर, इंटरनेट की सुविधा
स्मार्ट क्लासेज के प्रयोग
बायोमेट्रिक एटेंडेंस की शुरुआत
छात्रों के लिहाज से शिक्षक
गैर-शैक्षणिक कार्यों से वास्ता नहीं
कंप्यूटर सरकारी स्कूलों के लिए एक पहेली बने हुए हैं, जबकि पब्लिक स्कूलों ने कम्प्यूटर को आवश्यक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया है। वहां स्मार्ट क्लास, इंटरनेट की सुविधा, सीसीटीवी कैमरा, बायोमेट्रिक उपस्थिति आदि को प्राथमिकता से अपनाया गया है। ‘स्मार्ट क्लासेज’ के माध्यम से बच्चों के लिए रुचिकर एवं अद्यतन शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। बायोमेट्रिक उपस्थिति के ज़रिये शिक्षकों की उपस्थिति को सुनिश्चित किया जा सकता है। इससे सरकारी स्कूलों के उन शिक्षकों पर लगाम कसी जा सकेगी जो अपनी जगह किसी और को स्कूलों में भेजकर हाजिरी बनवा लेते हैं और खुद अपने निजी कार्यों में लगे रहते हैं।
आंकड़े बताते हैं कि सरकारी स्कूलों के लगभग एक तिहाई पद रिक्त हैं। उस पर भी गैर शैक्षणिक कार्यों में शिक्षकों को निरंतर लगाए रखा जाता है। प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर के चुनाव में ड्यूटी लग जाती है। उस पर भी मतदाता सूची पुनरीक्षण का काम बेहद उबाऊ और थकाऊ होता है। जनगणना, पशुगणना, परिवार सर्वे, पल्स पोलियो अभियान आदि में शिक्षकों को पूरे वर्ष उलझा कर रख दिया जाता है। इन गैर शैक्षणिक सरकारी योजनाओं पर सरकार का अधिक जोर रहता है। शिक्षण के प्रति लापरवाही तो सहन कर ली जा सकती है, परंतु इन कार्यों के प्रति ढिलाई बरतने पर सीधे निलंबन का फरमान आ जाता है। ऐसे में शिक्षक शिक्षण कार्य के प्रति उदासीन हो जाते हैं।
पब्लिक स्कूलों में बेहतरीन सुविधाओं का एक बड़ा कारण उनका फीस ‘स्ट्रक्चर’ है। वहां फीस निर्धारित करने का हक़ स्कूल प्रबंधन को होता है। फीस की राशि से कुछ हिस्सा तो मैनेजमेंट के मुनाफे में चला जाता है, लेकिन बाकी के हिस्से का इस्तेमाल स्कूल बिल्डिंग के रखरखाव, सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा विभिन्न प्रकार के स्पोर्ट्स पर खर्च होता है। सरकारी स्कूलों में धनाभाव इस कदर है कि चन्द फोटो स्टेट कराने के लिए भी मद को लेकर बहस शुरू हो जाती है। सरकार की ओर से जो रखरखाव की ग्रांट स्वीकृत होती है, उसकी राशि बहुत कम होती है। इसमें से सरकारी अफ़सरों और बाबुओं का कमीशन भी एक बड़ा सिरदर्द बन जाता है।
सरकारी स्कूलों की दुर्गति का ठीकरा शिक्षकों पर फोड़कर वास्तविकता से मुँह मोड़ना ठीक नहीं। सरकारी स्कूलों को पब्लिक स्कूलों की बराबरी पर लाने के लिए हमें भागीरथ प्रयास करने होंगे।
डॉ विनोद कुमार शामली जनपद के स्थायी निवासी हैं। चौधरी चरण सिंह विश्विद्यालय से पीएचडी। सम्प्रति राजकीय इंटर कॉलेज, बिजनौर में अर्थशास्त्र प्रवक्ता।
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DrNishant Yadav-बहुत सुन्दर विश्लेषण विनोद जी