निशांत यादव
‘सरकारी’ शब्द समाज में इस प्रकार उच्चारित किया जाने लगा है मानो जुगाड़ से चल रही कोई ‘चलताऊ’ व्यवस्था हो। एक राजकीय शिक्षक होने के नाते मुझे यह कहते संकोच होता है कि शिक्षा जैसे पुण्य कर्म का जैसा अपमान सरकारी स्कूलों के तंत्र के माध्यम से हो रहा है, वह बेहद निंदनीय है। ज़्यादातर लोगों की मनोदशा में सरकारी स्कूलों की शिक्षा जैसे औपचारिकता मात्र बनकर रह गयी है। अब सवाल यह उठता है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा की दुर्गति का कारण है क्या? यह यक्ष प्रश्न हमें निरन्तर उद्वेलित करता रहता है, और अक्सरां हम समस्या के मूल तक पहुँचने का प्रयास ही नहीं करते। हाई कोर्ट के ताज़ा तरीन फैसले ने इस प्रश्न पर फिर से मंथन करने की जरूरत पर बल जरूर दे दिया है।
शिक्षा का समाजवाद-2
उच्च न्यायालय का निर्णय एक तरह से इस बात पर मुहर लगाने वाला ही है कि सरकारी स्कूलोँ में शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। अदालत के मुतबाकि नौकरशाहों, सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के दाखिले से ही ये व्यवस्था पटरी पर आ पाएगी। सवाल उठता है कि सरकारी स्कूलों में जिन आधारभूत सुविधाओं की कमी है, क्या वह नौकरशाहों के बच्चों के दाखिले मात्र से पूरी हो जायेगी ? अध्यापकों को जिन गैर-शैक्षणिक कार्यों में लगाया जाता है, उनसे उन्हें क्या स्वतः ही मुक्ति मिल जायेगी? कोर्ट की मंशा जिस सिस्टम को सुधारने की है, वो क्या ऐसे उपाय मात्र से मुमकिन है?
सरकारी स्कूलों में सुधार के लिए हाईकोर्ट के निर्देश
1. सरकारी मुलाजिम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं
2. अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के लिए सरकारी स्कूल अनिवार्य किये जाएं
3. अगले सत्र से अधिकारियों के बच्चों के एडमिशन के नियम लागू हों
4. आदेश न मानने वाले मुलाजिमों पर कार्रवाई हो
5. प्रमोशन और मूल्यांकन के दौरान सरकारी स्कूल का एक एंगल भी जोड़ा जाए
6. दंड स्वरूप फीस के बराबर पैसा काटने का सुझाव
7. छह महीने में एक्शन टेकन रिपोर्ट अदालत को सौंपी जाए
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद से ही अफ़सरों और सरकारी कर्मचारियों के बीच खलबली सी मची है। कुछ दबे सुर में ये दलील भी दे रहे हैं कि अधिकारियों के बच्चों को क्यों पब्लिक स्कूल से सरकारी स्कूल में दाखिले के लिए बाध्य किया जा रहा है? क्या केवल एक यही वर्ग है जो समाज में दो तरह के शिक्षा तंत्र के लिए जिम्मेदार है? क्या अमीरों और गरीबों की शिक्षा पद्धति का फ़ासला ऐसे पट पाएगा? उद्योगपतियों तथा प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले धनाढ्यों के लिए सरकारी शिक्षा की अनिवार्यता क्यों नहीं? सरकारी कर्मचारी के बच्चों के साथ ही यह ‘प्रायोगिक’ व्यवहार क्यूँ? प्रायोगिक शब्द का इस्तेमाल इसलिए कि इसके नतीजों को लेकर कोई भी पक्के तौर पर गारंटी नहीं दे सकता।
बहरहाल, मैं यह समझना चाहता हूँ कि यदि हमारा मकसद सरकारी विद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था में सुधार करने का ही है तो फिर हम एक समेकित योजना क्यों नहीं बनाते? ब्यूरोक्रेट्स, न्यायपालिका के कर्मचारियों तथा अन्य सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के पढ़ाने मात्र से शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त हो जायेगी, इसका कोई स्पष्ट ‘विज़न’ अभी तक सामने नहीं आ पाया है।
इस संदर्भ में माननीय उच्च न्यायालय के एक निर्णय की ओर ध्यान आकृष्ट कराना ज़रूरी है, जिसमें राज्य सरकार से कहा गया था कि शिक्षकों की गैर-शैक्षणिक कार्यों में ड्यूटी न लगाई जाए। उस निर्णय का क्या हुआ? जनगणना से मतगणना तक, पोलियो दवाई से लेकर सरकारी योजना की रस्म अदायगी तक हर ‘बेगार’ के लिए शिक्षक पहले टारगेट होते हैं, बिना रजामंदी लिए उनकी ड्यूटी लगा दी जाती है। बाक़ी कसर राजनीतिक कारणों से बढ़ती हुई अवकाश सूची पूरी कर देती है। क्या हमने कभी सोचा कि सरकारी स्कूलों में इतनी छुट्टियां क्यूँ दी जाती हैं? क्या हम समानता अथवा बराबरी की शिक्षा के लिए निजी शिक्षण संस्थानों को पूरी तरह से समाप्त करने के विकल्प को आजमा सकते हैं? यदि ऐसी व्यवस्था हो जाए तो सरकारी और गैर-सरकारी का प्रश्न ही ख़त्म हो जायेगा।
निशांत यादव। जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हिंदी विषय में पीएचडी। इन दिनों बिजनौर के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक के तौर पर कार्यरत। शिक्षा व्यवस्था में सार्थक बदलाव के लिए चिंतनशील और प्रयासशील।
सरकारी स्कूलों पर मंथन जारी- पढ़ें एपी यादव की रिपोर्ट
राजन कौशिक -निशांत जी , आपके विचार जानकार बहुत प्रसन्नता अनुभव हुई । यदि सरकार वास्तव में शिक्षा क्षेत्र के लिए गंभीर है तो शिक्षकों को एक ऐसा मंच उपलब्ध जहाँ शिक्षण ही केवल एक कार्य हो। यदि कोई चाहे की एक ही व्यक्ति सभी कार्यो का निष्पादन कर सके तो यह संभव नहीं हो सकता। एक शिक्षक का मूल कर्त्तव्य शिक्षण ही होता है और उसी की आवश्यकता है । सरकारी मुलाज़िमो के बच्चों को प्राइमरी विद्यालयो में शिक्षा दिलाने से यदि शिक्षा का स्तर सुधरे जायेगा , यदि ऐसा है तो वर्तमान व्यवस्था में ये सब हास्यजनक ही लगता है ।
Nadeem Malik -Sir very nice
सर्व प्रथम बदलाव पत्रिका परिवार को शैक्षणिक, सामाजिक मुद्दों पर विचार रखने का मंच उपलब्ध कराने की हार्दिक बधाई, मैंने सभी विद्वान विचारकों को पढ़ा ,सभी का लेखन सटीक व वास्तविकता से परिपूर्ण है, मैं सभी को बधाई देता हूँ तथा बदलाव पत्रिका को धन्यवाद
Gaurav Mittal -Very nice thought. ..
Dr. Saheeb apke vicharo se 100 persent sahmat hoon, cadare division ko hatwa kar jab aap class 2 ya 1 main jayagan tab shiksha ke kshetra main apna sahi 2 yogdan de payagen. Thanks for your high quality thinking and work.