-पशुपति शर्मा की रिपोर्ट
बिहार के औरंगाबाद जिले का बरपा गांव, जहां हुई है बदलाव की शुरुआत, जहां बिखरे हैं बदलाव के रंग। बदलाव की ये पहल की है, पेशे से पत्रकार संदीप शर्मा और उनके साथियों ने। संदीप शर्मा रहते तो दिल्ली जैसे महानगर की परिधि में हैं, लेकिन वो इस चकाचौंध में खोए नहीं हैं, उन्हें अपनी जड़ों से प्यार है।
साल 2005 में देश के नंबर वन चैनल कहे जाने वाले आजतक में रहते हुए संदीप शर्मा ने गांव से प्रेम का पहला ‘ढाई आखर‘ मन में गढ़ा और उसको शक्ल देना शुरू कर दिया। संदीप शर्मा की माने तो-”हम लोग जिस जगह से निकले हैं, उसके लिए कुछ करना ही, मकसद था।
शुरुआत 2005 में 8 बच्चों के साथ एक छोटे से स्कूल-ज्ञानोदय स्कूल- के साथ हुई। स्कूल गरीबी रेखा से नीचे के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा मुहैया कराता है। उनके लिए कॉपी-किताब का इंतज़ाम भी स्कूल की तरफ से ही किया जाता है।
ढाई आखर के शुरुआती दिनों को याद करते हुए संदीप शर्मा कुछ भावुक से हो उठते हैं। इनके साथ जुड़ा है, उनके चाचा रघुवंश शर्मा का सपना। उन्होंने इस संस्था के लिए आसनसोल के ईस्ट कोल लिमिटेड की नौकरी छोड़ दी थी। स्वैच्छिक सेवा निवृति लेकर अपने गांव बरपा आ गए थे। काम शुरु होता इससे पहले ही पता चला कि रघुवंशजी को कैंसर है, वो भी फाइनल स्टेज में। ये एक बड़ा भावनात्मक झटका था। मई से लेकर नवंबर 2005 तक का वक्त चाचाजी के लिए दुआएं करते ही गुजरा। न दवाएं असर कर पाईं, न दुआओं ने ही कोई जादू किया, चाचा रघुवंश शर्मा की सांसों की डोर थम गई। उनके श्राद्धकर्म के लिए संदीप अपने गांव बरपा गए तो संस्था की नींव रखने के बाद ही लौटे। शायद चाचा को सच्ची श्रद्धांजलि यही थी।
आप इस संस्था के बारे में जानना चाहें तो इस लिंक पर भी जा सकते हैं-https://www.facebook.com/Dhaiaakharfoundation।
शुरुआत में बरपा और आसपास के कई गांवों तक संदीप और उनके साथी संपर्क अभियान के लिए निकले। लोगों को अपने साथ जोड़ने में काफी मुश्किलें आईं। दो स्वयंसेव टीचर- संतोष और हरेराम ने काफी मेहनत की। ज्ञानोदय में बच्चे जुड़ने लगे। हौसला बढ़ा। साल 2009 में एक एनजीओ के रूप में संस्था का रजिस्ट्रेशन कराया। अप्रैल 2009- ढाई आखर फाउंडेशन वजूद में आ गया। साथियों के सहयोग से ये संस्था अब तक चल रही है।
‘ढाई आखर‘ का मकसद नैतिक मूल्यों के साथ गरीब बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराना है। स्कूल में योग की क्लासेज भी लगती हैं और खास मौके पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन होता है। गांवों में नाटक लगभग बंद ही हो गए हैं, लेकिन ढाई आखर के बच्चे जब भी ऐसी कोशिश करते हैं, पूरा गांव दर्शक बनकर उमड़ पड़ता है। खास बात ये है कि बच्चे खुद ही इसकी जिम्मेदारी निभाते हैं। इसमें स्कूल के पुराने छात्र भी अहम भूमिका निभाते हैं। गांव के जयपाल मिस्त्री और तिलक मिस्त्री की बेटियों जया और उसकी बहन ने कॉस्ट्यूम से लेकर मेकअप तक की जिम्मेदारी खुद ही उठा ली। ऐसे ही कई बच्चे मंच तैयार करने में सुबह से ही जुट जाते हैं। बच्चों के आनंद का कोई ठिकाना नहीं रहता।
इसके अलावा गांव के विकास से जुड़ी सरकारी योजनाओं का संदेश सभी तक पहुंचाने के लिए समय-समय पर प्रभात फेरी भी निकाली जाती है। गांव की गलियों से गुजरते छात्र-छात्राएं के हाथों में जो तख्तियां होती हैं, उसमें बदलाव का पैगाम होता है। साथ ही नारे और कुछ गीत भी।
पिछले 10 सालों में ‘ढाई आखर‘ ने जो कुछ काम किया, उसका असर दिखने लगा है। शहर की कुछ संस्थाओं ने अब ढ़ाई आखर के प्रयासों को सराहा है। संस्था से जुड़े ग्रामीण बच्चों को गौतम बुद्ध आईटीआई संस्थान के अवधेश सिंह ने विशेष छूट देने का एलान किया है। इसी तरह अरवल के सीबीएसई से मान्यता प्राप्त स्कूल ‘एसेंबली ऑफ गॉड‘ और औरंगाबाद के पौथू का नवयुग सैनिक स्कूल ‘ज्ञानोदय‘ के दो-दो बच्चों को दाखिला देने, उनकी पढ़ाई लिखाई का खर्च वहन कर रहे हैं।
‘ढाई आखर‘ के लोगों को सुकून बस इस बात का है कि प्रेम के ढाई आखिर की पंडिताई का पाठ गांव के बच्चे बखूबी सीख रहे हैं, उसका हिस्सा बन रहे हैं और उसे फैलाने में मददगार भी।
पशुपति शर्मा बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी हैं। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।
बदलाव की शुरुआत करने के लिए आपलोगो को धन्यवाद।उम्मीद है ये पहल एक नई दशा-दिशा देगी
Ye soach hamare ganw k Kuch or bacho m daalne ki jarurat h. Ku ki tabhi hamara BARPA sapno ka barpa ban paayega …..