मजहब नहीं नाजायज रिवाज से जंग लड़ रही हैं मुस्लिम महिलाएं

मजहब नहीं नाजायज रिवाज से जंग लड़ रही हैं मुस्लिम महिलाएं

ब्रह्मानंद ठाकुर

औरत ने जन्म दिया मर्दों को , मर्दों ने उसे बाजार दिया।

जब जी चाहा मसला-कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।”

1958 में बनी फिल्म ‘साधना ‘ का यह गीत अचानक याद आ गया। इस गीत को लिखा है साहिर लुधियानवी ने और गाया है स्वर साम्राग्यी लतामंगेश्कर ने। इस गीत  के माध्यम से पुरुष प्रधान समाज में नारी की असहाय स्थिति का बड़ा ही दारुण चित्रण हुआ है।  इस गीत के मर्म ने मेरे अंतर्मन को इसलिए झकझोर दिया कि तीन तलाक का मामला इन दिनों काफी सुर्खियों में है। देश की सामाजिक वास्तविकता से वाकिफ शायद हर कोई इस बात को जान रहा है कि मुस्लिम परिवार की महिलाओं, खासकर अत्यंत दबे-कुचले और गरीब  मुस्लिम परिवार की महिलाओं के लिए तीन तलाक का यह तमाचा कितना घातक है।

अपने शौहर की हर जायज-नाजायज बात मानो। कितने बच्चे पैदा करने हैं, लड़का पैदा करना था लडकी क्यों पैदा हुई? हमारी मर्जी हम चाहें जितनी शादियां करें तुम रोकने वाली कौन? ऐसी ही  कुछ बातों पर  शौहर अपनी बीबी को तीन बार तलाक कह कर उससे नाता तोड़ लेता है और उसका जीवन नर्क बन जाता है। इस बीच अगर दोबारा उसको रखना चाहे तो इसके लिए तलाकशुदा महिला को किसी गैर से निकाह करना होगा। फिर उससे तलाक लेकर वह अपने पहले पति से निकाह कर सकती है। यह अमानवीय प्रथा तो पूरी इंसानियत के विरुद्ध है। मुस्लिम महिलाएं जब इस अनैतिक और अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाज बुलंद करती है, पुरुष के समान बराबरी के अपने हक के लिए न्यायालय में जाती है तो मुल्ला-मौलवियों और कट्टरपंथियों की भृकुटि तन जाती है। वे इसे पवित्र कुरान और शरीयत के खिलाफ बताने लगते हैं।

पिछले साल अप्रैल महीने में उत्तराखंड की 35 साल की सायरा बानो तीन तलाक को लेकर अचानक सुर्खियों में आ गयी। उनके शौहर ने तीन तलाक के आधार पर तलाक दे दिया। सायराबानो ने तीन तलाक, बहु पत्नी प्रथा और निकाहनामे की प्रथा को चुनौती देते हुए न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण  ली। तब करीब 50 हजार मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक प्रथा के खिलाफ याचिका पर हस्ताक्षर किया था। इससे पहले भी 1986 में इस तरह की मांग उठायी गयी थी, जब 62 साल की मुस्लिम महिला ने इंसाफ मांगने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। उसके पति ने भी तीन बार तलाक कहकर उसे घरनिकाला दे दिया था । तलाक पीड़ित मुस्लिम महिला की इस मांग को, पितृ सत्तात्मक प्रभुत्व और धार्मिक कट्टरता से उसकी मुक्ति के संदर्भ में  देखा जाना चाहिए था, लेकिन वैसा नहीं हुआ। अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल  ला बोर्ड तो इस अमानवीय प्रथा के समर्थन में खुल कर यह दावा किया कि मुस्लिम पर्सनल  लॉ दैवीय कानून (कुरान पर आधारित ) है इसलिए इसे बदला नहीं जा सकता।

आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को आधार मान कर जो मुस्लिम धार्मिक नेता तीन तलाक प्रथा को कुरान और शरीयत के आधार पर सही करार दे रहे हैं , उन्हें समझना चाहिए कि यदि यह कानून अपरिवर्तनीय होता तो पाकिस्तान, बांग्लादेश, सीरिया, मिस्र, तुर्की,  इरान जैसे कट्टर मुस्लिम देशों में तीन तलाक पर प्रतिबंध क्यों लगाया जाता ? सचमुच शरीयत की मनमानी व्याख्या की ही इसलिए जा रही है कि मुस्लिम शौहरों को मनमाने ढंग से अपनी पत्नी को तलाक देने में सुविधा रहे। सोचने की बात ये कि समय के साथ आस्था, विश्वास, धर्म की अवधारणा और मूल्य-मान्यताएं भी बदलती रही हैं।  जब-जब कोई समाज इस बदलाव की राह रोक कर खड़ा हुआ है, विकास की दौड़ में काफी पीछे छूट गया।

तीन तलाक के बाद जिस महिला का दामपत्य जीवन क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है, उसकी मायूसी, उसके दयनीय हालात को देख कर आज के सभ्य समाज का शायद ही कोई विवेकशील व्यक्ति होगा जो इस अमानवीय और घृणित प्रथा के बनाए रखने के पक्ष में हो। सही सोच रखनेवाला हरेक आदमी जो तीन तलाक के आधार पर उनके पतियों द्वारा त्यागी गयी महिलाओं की बदहाली और उसकी मानसिक प्रताड़ना से अच्छी तरह अवगत है वह निश्चित रूप से ऐसी महिलाओं की मुक्ति के लिए चलाए जाने वाले संघर्ष का समर्थन करेगा। आज विभिन्न समुदायों की महिलाओं की जो दयनीय स्थिति है उससे छुटकारा दिलाने के लिए सभी समुदाय के लोगों को मिलकर काम करना होगा। यहां एक बात विचारणीय है कि धर्म और धार्मिक रीति-रिवाज दो अलग-अलग चीजें होती हैं। रीति-रिवाज समय के अनुकूल बदलते रहते हैं और आगे भी बदलते रहेंगे। इसलिए तीन तलाक के सवाल पर मौजूदा धार्मिक रीति-रिवाजों में परिवर्तन लाने की जो बात हो रही है, उसे धर्म का विरोध नहीं माना जाना चाहिए।


ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।