प्रवीण कुमार
ट्रेन से सफर एक घर बसाने जैसा है, समाज में जीने जैसा है, और इसकी खिड़कियों से झांकना दुनिया से बातें करने जैसा है । खामोश पसंद हों या फिर बड़बोले, बडे ही प्यार से अपनाता है यह रेल परिवार। खास बात तो यह कि सब अनायास ही होता जाता है बस जब आपका स्टेशन आता है, ताे लगता है इतनी जल्दी भी क्या! और जब हड़बड़ी हो, तो मन कहता है ऐसी भी ट्रेन होती है क्या ?
खैर, अब जब 15 जून से कुछ ट्रेनें (धनबाद-चंद्रपुरा मार्ग ) बंद हो गई हैं , तो उसमें दो ऐसी ट्रेनें हैं जिसमें मैंने एक जीवन गुजारा। कभी भाई बन कर बहन के पास आया, तो कभी बेटा बन माता पिता के पास गया। और तो और विवाह करने भी इसी ट्रेन से गया। 13404 और 18603 न होता तो कहां जान पाता अंग को, विक्रमशीला, राजमहल, पाकुड़, संथाल, बंगाल और छोटानागपुर काे।
शुक्रिया 13404 और 18603, याद आओगे। इन ट्रेनों के जब बंद होने की खबर पढ़ा तो एक रिश्ते का इतिहास बनने जैसा लगा । एक बहन का मायका दूर होने जैसा लगा, चौराहे पर भटकने जैसा लगा। रास्ता तलाश रहा हूं वाया कोलकाता या वाया पटना या वाया किऊल या देवघर। सुना है एक ब्रेक के बाद फिर यह रिश्ता बहाल होगा, तब तक चलो गुनगुनाते हैं ….एक राह रूक गयी, दो और जुड़ गयी/ मैं मुड़ा तो साथ साथ राह मुड़ गयी/ हवा के परों पर मेरा आशियाना/ मुसाफिर हूं यारों…
प्रवीण कुमार। भागलपुर के निवासी प्रवीण कुमार इन दिनों रांची में रह रहे हैं। आपने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई की है। कई मीडिया संस्थानों से अनुभव बंटोरा।