वरिष्ठ पत्रकार राजेश प्रियदर्शी के फेसबुक वॉल से साभार
मुझ जैसे अनेक पत्रकारों के mentor या दोस्ताना उस्ताद एसपी की आज 23वीं पुण्यतिथि है. उनसे न जाने कितना कुछ सीखा, खबरों को देखने-समझने का सलीका, लगातार खोज-बीन-सवाल करते रहने की आदत और ताकतवर लोगों की नाराज़गी की परवाह न करने की हिम्मत….इन बातों की अहमियत करियर के शुरुआती सालों में उन्हें काम करते देखकर समझ में आई। IIMC में दाखिले के इंटरव्यू के दौरान 1992 में उनसे पहली बार मिला, उन्होंने इंटरव्यू के बाद, पेंसिल से लिखकर अपना फ़ोन नंबर दिया, तब मोबाइल नहीं होते थे। जब घर से लाए पैसे खत्म हो गए तो उन्हें फोन करने का फ़ैसला किया, उनके अलावा और किसी को जानता भी नहीं था, उन्होंने खुद ही कहा था कि फ़ोन करना। एक रुपए का सिक्का डालकर बूथ से फ़ोन करने पर उन्होंने शाम को मिलने के लिए बंगाली मार्केट के 14 बाबर रोड बुलाया। यह कपिल देव का बंगला था जहाँ से उनकी स्पोर्ट्स फ़ीचर की एजेंसी चलती थी, नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक के पद से इस्तीफ़ा देने के बाद एसपी शाम को देव फ़ीचर्स के दफ्तर में थोड़ी देर के लिए बैठते थे।
मैं दिल्ली के रास्त्तों से अनजान गलत बस स्टॉप पर उतरा, अगस्त का उमस भरा महीना, पसीने से लथपथ तीन किलोमीटर चलकर, रास्ता पूछते हुए उनके दफ़्तर पहुँचा। दरवाज़े पर कपिल देव दिख गए, दोनों हाथ सीधे करके उन पर चार-पाँच बैट रखकर सीढ़ी उतरते हुए। उतना हैंडसम आदमी मैंने उससे पहले नहीं देखा था। कपिल ने मेरी ओर देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, वो समझ गए कि ज़रूर एसपी से मिलने आया होगा, मेरे जैसे धूल-धूसरित, पसीने से लथपथ लोग उन्हीं से मिलते आते थे।
एक कारिंदे ने एसपी के केबिन का रास्ता बताया, उन्होंने मेरा हाल देखते ही घंटी बजाई, पानी और चाय के लिए कहा। फिर हाल-चाल पूछा, इतने में कपिल की तेज़ आवाज़ आई, अज़्ज़ू, अज़्जू…दुबले-पतले अज़हरउद्दीन बगल के कमरे से निकलकर बाहर भागे। एसपी ने मेरा हाल पूछा, पढ़ाई के बारे में पूछा, खाने-पीने के इंतज़ाम के बारे में भी। इस बीच इंटरकॉम पर कपिल देव का फोन आया, एसपी ने कहा, पाँच मिनट में। उन्होंने पूरे इत्मीनान से मेरी बात सुनी, फिर जब मैंने कहा कि कुछ लिखने का काम मिल जाए, तो ख़र्च निकल आएगा। मेरी बात सुनते ही उन्होंने कागज़ का एक टुकड़ा आड़ा-तिरछा फाड़ा और उस पर एक नोट लिखा, एक ताज़ा शुरू हुई पत्रिका के युवा संपादक के नाम और कहा, इनसे मिल लो, लिखने का काम इनके पास होना चाहिए। वह पत्र तो मैंने उन संपादक जी को दे दिया, वहाँ से कुछ काम तो नहीं मिला लेकिन दो दशकों बाद वह चिट्ठी लौटकर मेरे पास Whatsapp के ज़रिेए आई जो Mukesh Kumar को उन्होंने मेरे लिए लिखी थी।
उन्होंने मुझसे कहा कि अपना कोई नंबर हो तो दे दो। मैंने अपने मामा के घर का नंबर दे दिया और भूल गया। एक दिन अचानक मेरे मामा ने बताया कि तुम्हारे लिए एसपी सिंह का फ़ोन आया था, फोन करने को कहा है। मैंने फ़ोन किया तो उन्होंने कहा कि इंडिया टुडे वाले ट्रेनी ढूँढ रहे हैं, शेखर गुप्ता से मिल लो, लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के बाद फ़ैसला होगा। मैं एसपी सिंह के नाम पर सीढ़ियाँ चढ़ने की हिम्मत जुटाकर शेखर गुप्ता के पास गया, तो मुझे बाहर इंतज़ार करना पड़ा, अंदर दो कोट-टाई वाले लोगों को देखकर घबराहट भी हुई। शेखर बहुत सहज भाव से मिले, लिखित परीक्षा उन्नी राजनशंकर के कमरे में हुई जो अब इंडियन एक्सप्रेस के कार्यकारी संपादक हैं। कई हफ्ते सन्नाटा रहा, फिर इंटरव्यू का बुलावा आया और उसके कुछ समय बाद ट्रेनी जर्नलिस्ट बनने का ऑफर लेटर।
इसके डेढ़-दो साल बाद जब मैं उप-संपादक बन चुका था तब एसपी सिंह आजतक टीवी प्रोग्राम के एंकर-एडिटर बनकर आए, डीडी-मेट्रो पर 22 मिनट का समाचार कार्यक्रम। उसके बाद उनके साथ काफ़ी समय बीता क्योंकि ऑल इंडिया रेडियो में न्यू़ज़ पढ़ने की वजह से मुझे वायस ओवर और स्क्रिप्ट पर काम करने के लिए बगल वाले दफ़्तर कॉम्पीटेंट हाउस में बुलाया जाने लगा, लेकिन उससे पहले भी एसपी सिंह से मुलाकात होती रही थी। जब वे टेलीग्राफ़ के पोलिटिकल एडिटर थे और आइएनएस बिल्डिंग में बैठते थे। उनसे मिलने का सबसे बड़ा चाव ये था कि कई दिलचस्प बातें पता चलतीं लेकिन खतरा यही रहता था कि वे छूटते ही पूछते थे कि आजकल क्या पढ़ रहे हो?
मारूति के शोरूम के ऊपर बने सेटअप में एक छोटी-सी टीम थी स्क्रिप्ट वालों की। मैं दिवंगत अजय चौधरी और Rajiv Katara के साथ काम करता था और Qamar Waheed Naqvi फ़ाइनल अप्रवूल देते थे। बीच-बीच में कभी व्याकरण सिखाते, कभी खबर को चुस्त तरीके से लिखने का ढंग सिखाते, तो कभी आने वाली खबरों की ढंग से प्लानिंग करने का गुर।
मैंने आजतक कभी औपचारिक तौर पर ज्वाइन नहीं किया लेकिन उसकी शुरूआती टीम का हिस्सा रहा, जब मैंने एसपी को बताया कि मैं बीबीसी लंदन जा रहा हूँ तो वे बहुत खुश हुए, उन्होंने कहा कि खूब जमकर काम करना और खूब सीखना। उन्होंने ये भी कहा, “अपनी सारी बुरी प्रोफ़ेशनल आदतें एक पर्ची पर लिखकर रखना, प्लेन में सवार होने से पहले नीचे फेंककर चले जाना”। मैंने सोचा था कि लंदन जाने से पहले उनसे मिलकर जाऊँगा, मुझे अगस्त के तीसरे हफ़्ते में जाना था, वे जून के अंतिम हफ़्ते में दुनिया से चले गए, तब उनकी उम्र केवल पचास साल थी। मैंने बहुत कम अंतिम संस्कार देखे हैं जो सचमुच बहुत ग़मगीन थे, मेरे जैसे कृतज्ञता से भरे सैकड़ों लोग चुपचाप गहरे दुख में डूबे थे। एसपी की बहुत याद आती है, अक्सर आती है, खास तौर पर उनकी सहज मुस्कुराहट और अपनापन।
राजेश प्रियदर्शी/मूल रूप से झारखंड के निवासी । 90 के दशक में रांची यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली आए । एसपी सिंह के सानिध्य में पत्रकारिता की शुरुआत की । करीब तीन दशक से पत्रकारिता में सक्रिय । बीबीसी के लिए काफी दिनों तक लंदन में रहे । संप्रति बीबीसी में डिजिटल एडिटर के तौर पर कार्यरत । आजकल दिल्ली में निवास ।