राकेश कुमार मालवीय
उफ ! वक्त तुम कितने बुजदिल हो। दो साल पहले सुदीप पत्रकारिता में एक नई जगह पर अपनी कलम को आजमाने रायपुर चला आया था। मैंने और रामकृष्ण ने आज ही के दिन इस खुशी को और रायपुर में अपना कुनबा बढ़ने के मौके पर एक छोटी सी पार्टी रखी। मिले, बनाया खाया। क्या पता था, इस तस्वीर का एक चेहरा इतनी जल्दी, महज दो साल बाद ही रुखसत हो जाएगा। सुदीप तुम इस फ्रेम में अब नहीं हो, लेकिन हमारे दिलों में तुम्हारी तस्वीर हमेशा जिंदा रहेगी दोस्त।
सुदीप मेरा जूनियर था, लेकिन उसकी हंसी, उसका व्यवहार, उसकी मेहनत, पत्रकारिता और उसमें भी खासकर रिपोर्टिंग को लेकर उसका जुनून गजब का था। वह दोस्त जैसा बन गया था। मैं जब पत्रिका में जस्ट भोपाल की डेस्क संभाल रहा था, तब तो उससे रोज ब रोज का संवाद था। और बिहारियों के जैसे ही भाषा में लिंग पहचानने की गलतियां करता था, लेकिन उसमें सीखने का गजब का माद्दा था। कुछ ही दिनों में वह इन गलतियों को कम करता गया, और एक वक्त ऐसा भी आया कि वह डेस्क पर भी काम करने लगा।
श्रद्धांजलि
सुदीप को याद करो तो याद आता है उसका हंसना, खिलखिलाना। काम की गंभीरता। सबसे खास बात जो काम हाथ में लिया उसे मुकाम तक पहुंचाना। उसकी आदत थी शाम को अपने असाइनमेंट फाइल करने के बाद एक—एक के बारे में बताता, और तभी आफिस से विदा लेता। पता नहीं इसी मेहनत में वह कब डायबिटीज से पीड़ित हो गया। वह इससे लड़ा, हर जगह। हर पल। हां, उसका खाने पर नियंत्रण नहीं था। बिलकुल। खुद ही नहीं खाता, अपनों को भी खिलाता। एक बार अंजली से बात ही बात में दही चूड़ा की कुछ बात हो गई। हमारे घर में दही चूड़ा खाया नहीं जाता, हम तो पोहा खाने वाले लोग हैं। दूसरे दिन वह ढेर सारा दही और चूड़ा लेकर घर पहुंच गया। शायद कंचन भी साथ थी। वह ऐसा था।
घर में उसने तकरीबन सारी गृहस्थी ही बसा ली थी। जो सामान हम आमतौर पर शादी के बाद खरीदते हैं, वह शादी से पहले ही जमा कर चुका था। व्यस्थित तरीके से रहता, साफ—सफाई से घर रखता। खुद बनाता और अच्छे से खाता भी था। हम मजाक में उससे कहते कि यार तुम्हें शादी की जरूरत ही नहीं है। हां कंचन की शादी के लिए वह पूरी तैयारी कर रहा था। यहां तक कि कंचन के कपड़े और बारातियों को देने के लिए उपहार तक उसने साल भर पहले से खरीद रखे थे। पता नहीं, क्या उसे मालूम था, कि उसकी जिंदगी छोटी सी है।
रायपुर आया तो जब तक किराये का कमरा नहीं मिल पाया, हमारे घर को ही उसने ठिकाना बनाया। मेरे बेटे से उसकी अच्छी छनती थी। उसका काम बढ़ता गया तो बीमारी भी बढ़ती गयी। रिपोर्टिंग का उसे तनाव नहीं था। वह काम करना जानता था। चाहे भोपाल हो या रायपुर। रायपुर में कुछ ही दिनों में उसने खबरें पटकना शुरू कर दिया था। लेकिन पता नहीं पत्रकारों की दिनचर्या ही कैसे होती है, चाहने के बावजूद वह अपनी दिनचर्या को ठीक नहीं कर पाते। कमजोरी बढ़ती, ठीक होती, जिंदगी का अपडाउन चलता रहता। एक बार इतनी कमजोरी हो गई कि गाड़ी स्टार्ट करने में भी परेशानी होने लगी थी उसे। मैंने उसे डॉक्टर बंदोपाध्याय के पास जबरदस्ती भेजा। उसके बाद उसने इंसुलिन लेना भी शुरू कर दिया था। वह बहुत लोगों को अपनी हालत के बारे में नहीं बताता, लेकिन मुझे तो सब कुछ कहता था। वह कहता सर देखिए, यह खबर, हल्ला मचा दिए हैं, वो तो अपन शरीर से मात खा जाते हैं। यही वर्डिंग्स होती थी उसकी।
मिलने जुलने में लोगों के दिलों में जगह बनाने का विशेषज्ञ था। एक दिन जल्दी में था, मैंने कहा कहां, बोला प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकरजी से मिलने जा रहा हूं, उन्होंने बुलाया है। हम लोग सिरपुर गए साथ। घूमें। जो लोग मिलते—जुलते नहीं उनसे नाराज भी होता।
एक दिन पता चला कि तबियत ज्यादा खराब हो रही है, तो फिर गायब हो गया। कोई खबर नहीं, मेरे पास पत्रिका के राज्य संपादक जिनेश सर का फोन आया, तो उन्होंने पूछा कि वह कहां है। उसकी खैर खबर ली गई। उसकी हालत खराब थी। मैंने जोर देकर कहा, भाई पहले तबियत ठीक कर लो, अपन फिर नौकरी कर लेंगे। उसके भाई आए और उसे ले गए। कुछ दिन आराम किया। फिर दो महीने बाद आकर अपना सामान भी ले गया।
घर जाकर भी बात होती रही। हमने कुछ वैकल्पिक कामों पर भी बात की। पर मामला कुछ जमा नहीं कभी। उसने पत्रकारिता के अलावा कुछ और करने की कभी सोची ही नहीं। वह केवल पत्रकार था। भोपाल लौटना चाहता था। भोपाल ही उसका इश्क था। यहां तक कि उसने अपना भोपाल वाला नंबर भी कभी बंद होने नहीं दिया।
एक दिन अचानक पता चला कि पटना में आईनेक्स्ट ज्वाइन कर रहा है। मुझे तसल्ली हुई, चलो बंदा ठीक हो गया। उसकी फेसबुक की गतिविधियां भी शुरू हो गईं। जिंदगी की खैर तो सुबह की सैर वाली तस्वीरेें भी उसने पोस्ट कर दीं। पता चला वह पटना में भी अच्छा काम करने लगा था, नगर निगम जैसी बीट पर काम कर रहा था। शरीर कमजोर जरूर था, लेकिन इरादे बुलंद। इतने कि हर कहीं काम करने को राजी।
वह लड़ता था, खुद से ही। उसका अंतिम व्हाट्सएप स्टेटस भी यही कहता है। 25 जून को उसने लिखा था, ‘समय कई जख्म देता है, इसलिए घड़ी में फूल नहीं कांटे होते हैं।’ जख्म तो तुमने दिया है दोस्त। सच है, अब हमारे पास तुम्हें देने को कुछ नहीं है, सिवाय दो फूल देने के। तुमने पत्रकारिता को बहुत कुछ दिया, कमबख्त पत्रकारिता तुम्हें सेहत न दे सकी। तुम गए तो, हम सब के लिए अलार्म बजाकर गए हो। हम भी तुम्हारी राह पर बढ़ रहे हैं, फर्क यह है तुम तेजी से बढ़ गए, हम धीरे—धीरे।
अभी दस दिन पहले ही बात हुई थी, कान्हा में मीडिया कान्क्लेव कर रहे हैं, तुम्हें आना है। वह आने को तैयार था। मैंने कहा कि किसी साथी को लेकर आओ, टिकट कराओ। बढ़िया मुलाकात हो जाएगी और तीन दिन साथ रहेंगे। उसने कहा बिलकुल सर, टिकट कराते हैं। अपन आएंगे।
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो । माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का अध्ययन। हौशंगाबाद के निवासी राकेश की कर्मस्थली फिलहाल भोपाल है। पिछले एक दशक से पत्रकारिता और एनजीओ सेक्टर में सक्रिय। आप उनसे 9977958934 पर संपर्क कर सकते हैं।