हमारे दिलों का कोना-कोना नाप चुके हैं सागर बाबा

हमारे दिलों का कोना-कोना नाप चुके हैं सागर बाबा

सुबोध कांत सिंह

बात तक की है जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था। स्कूल में गर्मी की छुट्टी पड़ी तो मेरे चाचा मुझे अपने गांव लेकर आए। इससे पहले अपने गांव की शायद ही कोई याद मेरे जेहन में थी। मैं छुट्टियों का पूरा लुत्फ उठा रहा था। गांव के लोगों को जान रहा था। गांव के रास्ते, खेत खलिहान, पगडंडियों से जान-पहचान बढ़ा रहा था। इसी दौरान एक बुजुर्ग ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया।

रात का घुप्प अंधेरा हो, दिन की चिलचिलाती गर्मी हो या फिर सुबह शाम का खुशनुमा मौसम, इनके रूटीन पर कोई असर नहीं होता। सुबह मॉर्निंग वॉक, जो आम तौर पर इनके एक भाई के घर से दूसरे भाई के घर तक होती थी। फिर नाश्ते के लिए अपने घर लौटना। शाम में फिर अपने भाई के घर तक की चहलकदमी। और फिर रात में सड़क पर कदमताल। इनके बीच एक अहम चीज कॉमन थी, जो जहां रहता, जैसे भी रहता… सड़क पर आते-जाते इस बुजुर्ग को प्रणाम करना या यूं कहें कि टोकना नहीं भूलता था। और ये पूरी गर्मजोशी से न सिर्फ टोकने वाले शख्स का अभिवादन करते बल्कि बदले में स्नेह और आशीर्वाद की बरसात कर देते।

मैं भी चेतनावस्था में आने के बाद पहली बार उनके संपर्क में आया फिर उनसे बातें करना, उनके बारे में जानना, उनसे देश भ्रमण से जुड़ी बातें सुनना मुझे बेहद पसंद आने लगा। मैं भी उनके दिल के करीब आ गया। वो मुझे बाकी लोगों की तरह बस आवाज से ही पहचनाने लगे। गर्मी की छुट्टियां तो खत्म हुई तब तक उनसे जुड़ी यादें मेरे जेहन में बस चुकी थीं। उसके बाद मैं कुछ सालों के लिए फिर अपने गांव से चला गया, लेकिन उन्हें भूल नहीं पाया।

एक बार मैं लंबे वक्त के लिए अपने गांव लौटा तो उन्हें और ज्यादा जानने का मौका मिला। मैं ये देखकर हैरान था कि गांव के कुछ लोग जो बचपन से जवानी में कदम रख रहे थे, वो उनका मजाक बनाते थे लेकिन उनके जेहन में तो बस प्यार बसा था और वो उसे हर किसी पर लुटाते रहते थे। इस बार मैं अपने गांव में काफी दिनों तक रहा और उनसे मेरी दोस्ती लगातार बढ़ती गई। एक बार फिर मुझे अपना गांव छोड़कर पढ़ाई के लिए दिल्ली आना पड़ा और फिर गांव लौटा तो कई सालों बाद…
साल 2003 । मैं अपने बड़े भाई ललन सिंह की शादी में अपने गांव गया तो उनसे फिर मुलाकात हुई लेकिन ये दौरा बहुत छोटा था और मुझे फौरन लौटना भी पड़ा। इस भागमभाग में भी मैं उनसे मिलना नहीं भूला। फिर 2006 में भी एक बार गांव गया लेकिन उनसे मुलाकात नहीं हो पाई, जिसकी टीस मेरे जेहन में थी। करीब 8 साल के बाद 2014 में मैं अपने गांव गया, तो मन में सागर बाबा से मिलने की ललक कुछ ज्यादा ही थी। घर पहुंचने के बाद मैं उस वक्त का इंतज़ार कर रहा था, कि कब वो अपने घर से निकलें और मैं उनसे मिल सकूं। लेकिन देर शाम घर पहुंचने की वजह से उनसे मुलाकात नहीं हो पाई।

रात में हम सभी लोग घर के बाहर बैठे थे। चांदनी रात और आसमान में चमकते तारे। खुले आसमान के नीचे बैठकर मैं इस खुशनुमा अहसास का बड़े सुकून के साथ लुत्फ उठा रहा था। शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी में ऐसे पल नसीब नहीं होते। इसे देखने के लिए न तो माकूल जगह है और न ही इसे महसूस करने के लिए वक्त। इसी दौरान बरबस ही मेरी नज़र अंधेरे में हो रही एक हरकत की तरफ गई। ये घर हमारे गांव के बुजुर्ग लक्ष्मी सिंह का है, जिसे लोग डॉक्टर साहब के नाम से ही ज्यादा जानते थे। अब वो इस दुनिया में नहीं रहे और उनकी अगली पीढ़ी शहर में रहती है। घर सुनसान ही रहता है और उसकी रखवाली के लिए एक बुजुर्ग वहां रहते हैं। वो घर के बरामदे में सोने की तैयारी कर रहे थे, सारी तैयारी करने के बाद वहां जल रही लाइट को ऑफ करने आगे बढ़े। उसे बंद कर फिर सोने चले गए। पास ही मौजूद मेरे चाचा-चाची ने बताया कि वो सोने से पहले उन बत्तियों को बंद करना नहीं भूलते।

हैरानी की बात ये है कि ये बुजुर्ग जिनसे जुड़ी बातें मैं ऊपर कई बार कर चुका हूं वो जन्मजात दिव्यांग हैं और कुछ भी देख नहीं सकते। ऐसे एक शख्स को लाइट बंद करने की इतनी चिंता। हम और आप जैसे न जाने कितने लोग थोड़ी तकलीफ उठाने के बदले बिजली की बर्बादी होने देते हैं लेकिन ये हम सबसे अलग हैं। ये सोचकर मन ही मन उन्हें फिर से नमन करने का दिल करने लगा।
उनका नाम है सागर सिंह, जिन्हें हम सागर बाबा के नाम से बुलाते हैं। मेरे गांव के बुजुर्ग युवा और महिलाएं तो छोड़िए बच्चा-बच्चा इस नाम से परिचित है। मेरा गांव ही क्यों आस-पास के कई गांवों में भी ये नाम मशहूर है। सफेद धोती, आधी बांह की बनियान और कंधे पर चेक रंगीन अंगोछा। जो आम तौर पर लाल ही होता है, उनका पहनावा और पहचान दोनों बन चुकी है। किसी खास मौके पर वो कुर्ता भी पहने देखे जा सकते हैं। गांव का कोना-कोना उन्होंने अपने कदम से नाप रखा है। वो एक छोटी बेंत की मदद से गांव के एक छोर से दूसरे छोर तक आसानी से आ जा सकते हैं। दिन-रात भजन और लोगों से मिलने मिलाने के अलावा उनके पास कोई काम नहीं। वो निस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करते हैं। कई बार बेरोजगार लोगों की मदद के लिए देश के कई शहरों की यात्रा भी कर चुके हैं। इसकी वजह से उन्हें कई शहरों के बारे में अच्छी खासी जानकारी है। कोलकाता का तो उन्हें कोना-कोना पता है।

रात 8 बजे के आसपास गांव के घुप्प अंधेरे में उनकी आवाज सुनाई दी। वो किसी को चलते-चलते लंबी उम्र और खुशहाल जिंदगी का आशीर्वाद दे रहे थे। मुझे समझते देर नहीं लगी कि ये सागर बाबा ही हैं। मैंने भी दूर से ही उन्हें आवाज़ लगाई और फिर दौड़कर उनके पास सड़क किनारे पहुंचा जहां से वो रोजाना इसी वक्त आते जाते थे। मैंने उनके पैर छुए तो मुझे भी उसी अंदाज में उनका आशीष मिला। लगे हाथ मैंने अपनी पहचान पूछ डाली- उन्होंने कहा कि आवाज तो जानी पहचानी है लेकिन मैं आपका नाम याद नहीं कर पा रहा हूं। शायद ये 8 साल लंबे इंतजार का नतीजा था। फिर भी मैंने उनसे कहा कि मैं आपका पोता हूं-आप नाम याद कीजिए। चूंकि वो मेरे घर के सामने थे और हर घर के लोगों का नाम उन्हें पता था। उन्होंने फौरन कहा सुबोध- मैं जोर से हां बोला और अंधेरे में ही मेरे चेहरे की चमक को वहां मौजूद लोगों ने देखा। फिर अगले दिन मुलाक़ात का वादा कर मैंने उनसे इजाजत ली और फिर घर आ गया।

2014 के बाद 2016 में मेरा एक बार फिर गांव जाने का प्लान बना। इस बार मैं गांव में कई दिन बिताने का इरादा लेकर गया था ताकि गांव, खेत, खलिहान और खासकर गांव के लोगों को करीब से जान सकूं। उनसे जुड़ सकूं। इस कड़ी में मैं कई लोगों से मिला लेकिन ये मुलाक़ात सागर बाबा से मिले बिना अधूरी अधूरी सी लगती। लिहाजा मेरी नजरें हमेशा उन्हें तलाशती रही। दोपहर का वक्त ढल रहा था। तेजी से शाम की तरफ छाया बढ़ चली थी। शाम के 4 बजे के आसपास सागर बाबा सड़क से जाते दिखे। मैंने आवाज दी तो वो वहीं रूक गए। मैं दौड़कर उनके पास गया और फिर मेरे घर चलने की गुजारिश की। वो फौरन मेरा हाथ पकड़कर चलने लगे। दरवाजे पर कई कुर्सियां लगी थीं। मैंने उन्हें उसी में से एक पर बैठाया और चाचीजी को इशारे से कुछ कहा। वो घर से प्लेट में कुछ मिठाईयां और एक ग्लास पानी लेकर आईं। मैंने उसे सागर बाबा को दिया और फिर उन्होंने उसे खाना शुरू कर दिया। हर निवाले के साथ उनके मुंह से मेरे लिए आशीष की झड़ी लगी थी। मैं अभीभूत था। इसमें मैं वो सुकून और खुशी महसूस कर रहा था, जिसकी अनकही तलाश में दिल रहता है और मैं तो न जाने क्यों देशभर के शहरों की खाक छानता हूं।

कबीर ने जिंदगी को अलग अंदाज में जीने की राह दिखाई है। वो रास्ता आनंद का है। अगर कोई उसे समझ जाए तो फिर कभी दुखी ही न रहे। सागर बाबा को देखकर भी कबीर की चंद लाइनें बरबस ही याद आ गईं …

जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में ॥
भला बुरा सब का सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में ॥
मन लागो मेरो यार फकीरी में ।


सुबोध कांत सिंह। मुजफ्फरपुर के असवारी बंजारिया गांव के निवासी। इन दिनों दिल्ली में प्रवास। पिछले एक दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। न्यूज 24, इंडिया टीवी जैसे बड़े चैनलों की संपादकीय टीम का हिस्सा रहे। संप्रति न्यूज़ नेशन में एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर।


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4 thoughts on “हमारे दिलों का कोना-कोना नाप चुके हैं सागर बाबा

  1. Very very nice ..
    I found the real life story
    And the major difference between village and city
    And the Formula to stay happy:)
    Thank you!

  2. Ye lekh padne n baad dil khush ho Gaya .Bado Ka ashirwaad hi ek esi dawa hai Jo samjhe use lage .Bahut khoob suboth Bhai .Sagar Baba Ka ullekh badi achi tereh se Kia hai

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