पिछले कुछ दिनों से फेसबुक पर स्त्री विमर्श पर कई टिप्पणियां देखीं। जेएनयू की रिसर्च स्कॉलर रहीं सुदीप्ति ने इस सिलसिले में फेसबुक पर कुछ टिप्पणियां पोस्ट की हैं। सुदीप्ति इन दिनों राजस्थान के मेयो कॉलेज में प्राध्यापिका हैं और किसी भी मुद्दे पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखती हैं। स्त्री विमर्श पर उनका नज़रिया ब-जरिया फेसबुक।
6 जुलाई की फेसबुक पोस्ट
कभी सोचती हूँ कि जब औरतें दैहिक संबंधों के माध्यम से सत्ता और ताकत हासिल करतीं हैं, उसे लेकर मैं जजमेंटल क्यों हो जाती हूँ? क्या पितृसत्तात्मक नैतिकता का दबाव ऐसा है? क्या मैं भी मूलतः पितृसत्तात्मक समाज की ही नागरिक हूँ? फिर याद आता है कि मुझे पुरुषों द्वारा पैसे, खानदान और हथियार के जोर से हासिल की सत्ता भी चुभती है। पुरुष भी सत्ता, पैसे और पद के रास्ते जो दैहिक सम्बन्ध पाते हैं, वो भी अनैतिक और बुरे लगते हैं। इसका मतलब मैं मध्यवर्गीय नैतिकता से ग्रस्त हूँ न कि पितृसत्ता से।
7 जुलाई की फेसबुक पोस्ट
सोना चौधरी (भारतीय महिला टीम की पूर्व कप्तान) ने एक किताब लिखी है। उसमें यह उजागर किया गया है कि कप्तान बनाने या टीम में शामिल करने जैसे कामों के बदले खेल अधिकारी स्त्री खिलाड़ियों का दैहिक शोषण करते थे।
क्या आपको यह ठीक लगता है? चयन करने वाला कोई ताकतवर आदमी कहता हो कि ओलम्पिक या किसी भी टूर्नामेंट में तभी भेजूंगा जब तुम मेरे साथ हमबिस्तर होओगी?
मुझे ग़लत ही नहीं आपराधिक भी लगती है यह बात।
और बदले में कोई स्त्री अगर हाँ कह दे तो भी क्या इस बात के वही मतलब होंगे? लगभग हाँ। उस स्त्री का शोषण तब भी हुआ पर पुरुष सत्ता के सामने झुक कर उसने सहमति से अपना शोषण स्वीकार किया। अपनी महत्वाकांक्षा के पोषण के लिए उसे जो रास्ता छोटा दिखा उस पर चली। अपने अधिकारों के लिए बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी।
आपमें बहुतों को वह स्त्री बस विक्टिम दिखेगी और मुझे विक्टिम दिखते हुए अपराधी भी। उसकी कमजोरी या ऐसे चयन से आगे की पीढ़ियों के लिए ऐसे प्रस्ताव ज़ारी रहेंगे।
आपमें बहुतों को कोई दुविधा नहीं होगी। जिसने जो चाहा उसे बारगेन में मिला। पर मुझे ऐसे बारगेन की हिमाकत करने वाला भी ग़लत लगेगा और इस पर एग्री होने वाला भी।
नैतिकता को गोली मारिए, कारण है आधार। यहाँ चयन का आधार खेल के मैदान में प्रदर्शन होना चाहिए और आप किसी और आधार पर निर्णय ले रहे हैं।
और प्लीज़ शातिर भोलेपन में यह मत कहिए कि यह सब बस अफवाहें हैं। हम अपने समाज के सच को निरस्त नहीं कर सकते।
8 जुलाई की फेसबुक पोस्ट
लगातार मित्र-अमित्र बहुत से लोग नाराज़ हो रहे हैं। मुद्दा जटिल है। ऐसा लग रहा है जैसे मैं स्त्रियों के ख़िलाफ़ हो गयी हूँ या मेरी सोच प्रतिगामी हो चुकी है। ऐसा भी नहीं कि मैं अपनी बात स्पष्टता से नहीं रख पा रही फिर भी लगातार खुद को व्याख्यायित करना पड़ रहा है। जो लोग भी मेरी बातों को स्त्री विरोधी समझ रहे हैं उनसे मेरे कुछ सवाल हैं। कृपया उत्तर जरूर दें-
1) हम लोग स्त्री की मर्ज़ी का समर्थन करने वाले लोग हैं। जब एक स्त्री को उसकी प्रतिभा/महत्वाकांक्षा/सपने के लिए एक सेक्स सम्बन्ध के लिए मजबूरन तैयार होना पड़ता है। वो जिस आदमी से बिस्तर बाँटना नहीं चाहती उससे बाँटना पड़ता है। तो जो भी औरतें इसके मजबूरन या ख़ुशी-ख़ुशी तैयार होती हैं, वो कैसे स्त्री को सशक्त कर रही हैं?
2) यहाँ कैरेक्टर की बात ही नहीं। समाज के बनाए अच्छी बनाम बुरी लड़की के खाँचे को मैं नहीं मानती। समाज के लिए स्त्री देह वस्तु है, मेरे लिए नहीं है।
बहुत-सी लड़कियों के लिए वस्तु है, सम्पति है उनकी देह। वे अच्छी/बुरी नहीं अलग हैं।
मेरे लिए जैसे इज्जत योनि में नहीं उसी तरह शरीर सफलता का ज़रिया नहीं। अगर समाज स्त्री-देह को उपभोक्तावादी नजरिए से वस्तु मानता है तो गलत और स्त्री खुद मानकर/स्वीकार कर इस्तेमाल करे तो सही? कैसे?
3) पति/ बच्चे के लिए शरीर बेचने वाली स्त्रियों के ‘महान’ चरित्र हिंदी सिनेमा में गढ़े जाते हैं। मेरे लिए वे महान नहीं और ग़लत भी नहीं। उनके पास बचा वो अंतिम रास्ता है। मेरे लिए वे बेचारी भी नहीं; बहुत हिम्मती हैं कि पलायन की जगह अंतिम रास्ते पर चलने का जोखिम उठाती हैं। पर क्या भूख, मौत और लड़ने के लिए देह के हथियार का इस्तेमाल करने और महत्वाकांक्षा के लिए करने में क्या कोई अंतर नहीं है? माना कि औरतें सत्ता से दूर हैं पर सत्ता पाने का यह तरीका क्या उनको दोयम दर्जे का साबित नहीं कर देता?
4) क्या यह महत्वाकांक्षा को पूरी करने का अंतिम रास्ता है? क्या उसके बगैर मंज़िल नहीं मिलेगी? अगर है भी तो क्या वो स्त्री के लिए सम्माजनक और बराबरी का रास्ता है? क्या हम इसी बराबरी की लड़ाई लड़ रहे हैं? यह बराबरी है कि कोई अनचाहा भी ‘सोने’ के लिए कह रहा है और अपने सपने के लिए हम सो जाएँ उसके साथ? मेरी सहेलियों, अगर सच में यही बराबरी है तो मैं अपनी सारी घिसी-पिटी मान्यताएं छोड़ तुम्हारे साथ आ जाऊँगी।
बालमगढ़िया की छात्राएं गढ़ रही हैं सपनों की दुनिया… पढ़ने के लिए क्लिक करें