आज हम सियासी फायदे के लिए कुछ भी करने के तैयार हैं, लेकिन आधी आबादी को उसका हक वास्तव में मिले, इसको लेकर सरकार या फिर हमारा समाज कितना ईमानदार है वो सबके सामने हैं । ऐसा नहीं है कि इसके लिए कभी पहल नहीं की गई, आज 14 साल तक की लड़कियों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है, उसके बाद भी आजाद हिंदुस्तान में महिलाओं की खासकर ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की क्या स्थिति है ये किसी से छिपी नहीं है । सिलसिलेवार तरीके से बात की जाये तो आजादी के बाद पहली पंचवर्षीय योजना में लड़कियों की शिक्षा में आने वाली बाधाओं को दूर करने पर जोर दिया गया। इस दृष्टिकोण से प्राथमिक से लेकर प्रौढ़ स्तरों तक शिक्षा सुविधाओं में विस्तार किया गया। वर्ष 1958 में महिलाओं की शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया। इस समिति ने वर्ष 1900 से भारतीय महिलाओं में शिक्षा की स्थिति का अध्ययन किया। इस समिति ने एक रिपोर्ट तैयार की। समिति की सिफारिश पर सरकार ने वर्ष 1959 में महिला शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय परिषद का गठन किया।
ग्रामशाला पार्ट-12
60 के दशक में गांव स्तर तक महिला शिक्षा के प्रसार के लिए बाल सेविका प्रशिक्षण कार्यक्रम, संक्षिप्त स्कूल पाठ्यक्रम और प्रौढ़ महिलाओं के लिए व्यवसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरु किए गए। वर्ष 1971 में महिला शिक्षा के लिए एक और समिति का गठन किया गया। इस समिति में गांव-गांव स्कूल खोलने की सिफारिश की ताकि लड़कियां पैदल स्कूल जा सकें। लेकिन, लड़कियां तब भी अपेक्षित लाभ नहीं उठा पा रही थीं। इसलिए, साल 1974-79 के बीच शिक्षा लेने वाली लड़कियों को छात्रवृत्ति का प्रावधान किया गया। वर्ष 1974-79 के बीच महिला शिक्षकों की नियुक्तियों को बढ़ावा दिया गया। इसी दौरान बड़ी संख्या में बालवाड़ियां और बालिका-छात्रावासों की स्थापना की गई। वर्ष 1974-79 के बीच स्कूली पाठ्यक्रमों से महिलाओं के प्रति भेदभाव दर्शाने वाली बातों को हटा दिया गया। इसी दौरान प्राथमिक शिक्षा लड़कियों के लिए नि:शुल्क कर दी गई। इसी दौरान अनुसूचित जाति और जनजाति की उन लड़कियों को जो दसवीं के बाद भी पढ़ना चाहती थीं, उन्हें विशेष छात्रवृत्ति दी जाने लगी। वर्ष 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी। इसमें महिलाओं के मुद्दों को पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया। इसमें शिक्षा को सामाजिक न्याय व सशक्तीकरण का माध्यम माना गया।
आजादी के बाद पहली जनगणना में महिला साक्षरता दर 7.9 फीसदी थीआखिरी जनगणना में महिला साक्षरता दर बढ़कर 65.46 प्रतिशत हो गई ।आखिरी जनगणना में गांवों में महिला साक्षरता दर 38.29 फीसदी ही रही।
90 के दशक के शुरुआत में प्राथमिक शिक्षा संबंधी प्रयोग अपने आखिरी दौर में पहुंच गए थे। राज्य और लक्ष्य स्तर कार्यक्रम बनाए गए। लड़कियों को शिक्षा के लिए पहली शर्त मानकर सर्व शिक्षा अभियान का उभार हुआ। अनौपचारिक शिक्षा केंद्र के तहत चौबीस हजार से अधिक केंद्र खोले गए। स्कूल से बाहर लड़के-लड़कियों के लिए शिक्षा गांरटी और वैकल्पिक नवपरिवर्तनकारी शिक्षा योजना चलाई गई। आधे पदों पर महिला शिक्षकों की भर्तीं सुनिश्चित हुई। मिड डे मील शुरु हुआ। जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम लैंगिक प्रशिक्षण और गांव के पास स्कूल खोले जाने जैसी बातों पर बल दिया गया।
कई तरह के प्रयास के बावजूद आज हम देखते हैं कि लड़कियों की शिक्षा की दिशा में अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हुए। इसके पीछे मुख्य कारण सांस्कृतिक-सामाजिक हैं। इसके बाद आर्थिक और शिक्षा प्रणाली आधारित कारण आते हैं। भारतीय समाज में महिला का स्थान पुरुष के बाद दूसरा है। इसलिए, हर क्षेत्र में प्राथमिकता पुरुष को दी जाती है। शिक्षा पर भी यही बात लागू होती है। माना जाता है कि उसका पहला काम घर-गृहस्थी बसाना और संभालना है। फिर यह बात भी सोची जाती है कि पढ़-लिखकर लड़की आखिर ससुराल ही जाएगी तो उसकी शिक्षा पर अधिक पैसा क्यों खर्च करना। इसके अलावा विशेष तौर पर लड़कियों को घर से अधिक देर तक बाहर रहना ठीक नहीं समझा जाता। लड़की के माता-पिता पर लड़की की शीघ्र विवाह करने का दबाव होता है।आमतौर पर गांवों में लड़की या तो परिवार के साथ काम पर जाती है या घर पर छोटे बच्चों को संभालती हैं। ऐसे में उसका स्कूल जा पाना संभव नहीं हो पाता है। इसके अलावा अनौपचारिक, प्रौढ़ और प्राथमिक शिक्षा जैसी योजनाओं से मिलने वाली धनराशि इतनी नहीं होती कि वे गरीबी चक्र का सामना कर अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें।
गांव और उसके दूर-दूर तक स्कूल न होना एक बड़ी समस्या है। लड़की को दूर भेज पाना सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से मुश्किल हो जाता है। स्कूल का पाठ्यक्रम भी शहरी ज्ञान प्रधान होने से गांव वालों के काम का नहीं होता। इसके अलावा शिक्षक की अनुपस्थिति, शिक्षण पद्धति में कमी और घर में पढ़ाई के माहौल का अभाव आदि कारण लड़कियों को पढ़ाई के प्रति उदासीन बना देते हैं। स्कूल में यदि लड़कियां सीख नहीं पा रही हैं तो परिजन ज्यादा जोर नहीं देते। गांवों में स्कूल में शौचालय आदि की कमी, जातिवाद, गरीबी, लड़कियों के साथ बलात्कार और छेड़छाड़ होने का डर और जागरूकता की कमी लड़कियों की शिक्षा में बड़ी बाधाएं हैं। फिर गांवों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की लड़कियों की स्थितियां तो और भी अधिक खराब हैं। देखा गया है कि छह से ग्यारह वर्ष आयु-वर्ग की लड़कियां यदि स्कूलों में भर्ती होती भी हैं तो वे ग्यारह से चौदह वर्ष की आयु तक आते-आते स्कूल से दूर हो जाती हैं।
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।