रुपेश कुमार
जब देखता हूं
ढीली होती पेशियां
पिता की
बहुत कांपता
है हृदय !
सुबह जब कभी
लेटते हैं देर तक पिता
तब जी कड़ा कर
उन्हें जाता हूँ जगाने
सच कहूं तो
तब भी
बहुत कांपता
है हृदय !दवाइयां टटोलती
उनकी उंगलियों
को अक्सर ही
चूमने का मन करता हैमां की तस्वीर देखते हुए
चश्मे के पीछे
उनकी पनीली आंखों में
जब दुनिया भर का
दर्द दिखता है…तो
कांपता है हृदय !55 में आई किसी
फ़िल्म का जिक्र
या
बाबूजी के खाने के शौक
की चर्चा करते हुए
पिता के चेहरे पर आई
चमक
दिन भर
मेरे चेहरे पर
चमकती हैपोते से
उनकी ठिठोली
वसन्त का एहसास देती हैसमय … आहिस्ता चलो न
इतनी तेज रफ्तार देख
बहुत कांपता
है हृदय !
मानवीय सम्वेदनाओ से लवरेज कविता।