पशुपति शर्मा
राजकमल नायक। रंगमंच का ऐसा साधक, जिसने मंच पर तो एक बड़ी दुनिया रची लेकिन सुर्खियों के ताम-झाम से हमेशा खुद को दूर रखा। सामान्य सी कद काठी से रंगमंच पर करिश्माई प्रभाव पैदा करने की कूवत रखने वाला एक ईमानदार कलाकार, लेखक और निर्देशक। राजकमल नायक को देश में कला क्षेत्र का सर्वोच्च प्रतिष्ठित “संगीत नाटक एकेडमी पुरस्कार” राष्ट्रपति महोदय के करकमलों से 17 जनवरी को राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में प्रदान किया गया।
अकादमी फेलोशिप पाने वाले और सम्मानित कलाकारों की प्रस्तुतियां भी संगीत नाटक अकादमी ने आयोजित की हैं। इसी कड़ी में राजकमल नायक निर्देशित एकल नाट्य प्रस्तुति ‘अलग मुल्क का बाशिंदा’ की प्रस्तुति शनिवार, 20 जनवरी को मेघदूत थियेटर, मंडी हाउस में दोपहर 2 बजे हो रही है। 20 जनवरी की सुबह 11 बजे पहले आप प्रभीतांशु दास की पुतुल कला का आनंद ले सकते हैं। फिर गोविंद भट्ट की यक्षगान प्रस्तुति होगी। पूर्वाह्न का आखिरी कार्यक्रम नाट्य प्रदर्शन है। ‘अलग मुलक का बाशिंदा’ में राजकमल नायक ने नए तरह के प्रयोग किए हैं और एक कलाकार के माध्यम से ज़िंदगी के अलग-अलग रंगों को समेटा है।
राजधानी दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर भोपाल और रायपुर जैसी जगहों पर सतत रंगकर्म कर रहे राजकमल नायक से दिल्ली के संस्कृति केंद्र मंडी हाउस में तब मुलाक़ात हुई थी, जब उन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई थी। ये एक संयोग ही था कि ये एलान ऐसे वक्त में हुआ जब वो संगीत नाटक अकादमी की ओर से ‘कविता के रंग-व्यवहार’ पर आयोजित एक वर्कशॉप में बतौर प्रशिक्षक दिल्ली आ रहे थे। राजकमल नायक पिछले 4-5 दशकों से रंगकर्म में सक्रिय रहे हैं। भोपाल में भारत भवन रंगमंडल के दिनों में उनके अभिनय ने लोगों को अपना मुरीद बनाया तो बाद के दिनों में बतौर निर्देशक उन्होंने अपनी प्रयोगधर्मिता से रंगमंच को समृद्ध किया।
राजकमल नायक ने कहा कि सम्मान मिलने से खुशी तो होती है। ऐसा लगता है मानो आपके काम को पहचान मिल रही है। लेकिन इससे ऐसा नहीं होता कि अपकी रचनाधर्मिता में अचानक कोई बदलाव आ जाए। वो तो अपनी गति से ही चलती है। उनके लफ़्ज़ो में कहें तो-” ये सम्मान एक तरह की खुशी देते हैं। मानो साधना का फल मिला हो। हालांकि हम तो पहले की तरह ही उसी जोश से लगे हैं। लगातार काम करने की खुशी इन सबसे बड़ी होती है।”
राजकमल नायक का मानना है कि रंगकर्म मानवीय मूल्यों और सौंदर्य बोध की अभिव्यक्ति का माध्यम है। ये समाज को बेहतर बनाने का प्रयास करता है, समाज की बेहतरी के लिए उठाया गया कदम है। रंगमंच के लिए साधन, साधना और संधान तीनों की जरूरत को वो अहम मानते हैं। उनकी नज़र में रंगकर्म की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी जनता और समाज है। यहीं सारा कथ्य और कथानक चुनना होता है। उसकी गहराई में जाकर पड़ताल करनी होती है। थियेटर में सर्च सबसे बड़ा शब्द है। बातों-बातों में राजकमल नायक अंर्स्ट फिशर का कथन उद्धृत करते हैं-” कला इसलिए जरूरी है कि आदमी दुनिया को समझ सके और बदल सके। लेकिन कला इसलिए भी जरूरी है कि उसमें जादू (आकर्षण) अंतर्निहित होता है।”
राजकमल नायक रंगकर्म की पहली शर्त मनुष्यता और मानवीयता को मानते हैं। उनके मुताबिक, मनुष्य से मनुष्य के संबंध का विखंडन हो रहा है, रंगमंच को एक सेतु के तौर पर काम करना चाहिए। हम समाज में अकेले होते जा रहे हैं। प्रकृति से हमारे रिश्ते कम होते जा रहे हैं। हम अपने में कैद होते जा रहे हैं। कला ही वो कारगर हथियार है, जिससे मनुष्य, मनुष्यता, प्रकृति और संबंध बचे रहते हैं।
इसके साथ ही राजकमल नायक रंगकर्मियों में पठन-पाठन के प्रति गहरी दिलचस्पी के न होने को एक बड़ी चिंता का विषय मानते हैं। उनकी नज़र में मुट्ठी भर अभिनेता ही हैं जो अध्ययन को अपनी रुटीन का हिस्सा बनाते हैं। राजकमल नायक खुद हर दिन 4-5 घंटे स्वाध्याय करते हैं। वो कहते हैं- ” जो पढ़ता हूं, उसके प्रैक्टिकल अप्लीकेशन के बारे में सोचता हूं। सिद्धांत और प्रयोग का संतुलन कायम रखने की कोशिश करता हूं। थियेटर वालों को अलग आंख, कान चाहिए। क्योंकि देखने और गौर से देखने का फर्क उन्हें समझना जरूरी है। सुनने और गौर से सुनने का अंतर उन्हें महसूस होना चाहिए।”
राजकमल नायक मानते हैं कि कलाकर्म के लिए अनुभव संपन्न बनना और अनुभवों को संपन्न करना बेहद जरूरी है। प्रिय नाटकों के बारे में जब मैंने उनसे सवाल किया तो वो इस सवाल को टाल गए। उन्होंने कहा कि जो भी नाटक उन्होंने किए हैं, वो सब प्रिय हैं। हालांकि वो हाल ही में तैयार किए गए नाटक ‘अलग मुलक का बाशिंदा’ के बारे में थोड़ी सी चर्चा करते हैं। इस नाटक में प्रकृति, महिला सशक्तिकरण, भ्रष्टाचार और ऐसे ही तमाम मसले उठते हैं, हमारी संवेदना के तार झंकृत होते हैं और कहानी चलती रहती है। ये एकल अभिनय है लेकिन इसकी समग्रता दर्शकों को चौंकाती है।
राजकमल नायक ने पिछले कुछ वर्षों से कविताओं की प्रस्तुति को लेकर भी काफी काम किया है। उन्होंने इसे ‘कविता का रंग व्यव्हार’ का नाम दिया है। 2002 से वो कविताओं की प्रस्तुतियों को लेकर संजीदगी से काम कर रहे हैं। विश्व कवियों से लेकर देश के नामी-गिरामी कवियों की कविताओं को उन्होंने मंच पर साकार किया है। राजकमल नायक कहते हैं कि कविता की आत्मा को जिंदा रखते हुए दर्शकों तक उसे संप्रेषित करना एक बड़ी चुनौती हुआ करती है।
बातों का सिलसिला जारी रखने की ख्वाहिश को एक रंगकर्मी की प्रतिबद्धता ने बाधित कर दिया। राजकमल नायक ने ये कहकर बीच में रोक दिया कि उनकी वर्कशॉप में कुछ नया होने को है और वो इससे वंचित नहीं रहना चाहते। एक साधक अपनी साधना में तल्लीन हो गया, और उसे कुछ पल निहारने के बाद हम वहां से रुखसत हो लिए। बातचीत के दौरान उन्होंने शमशेर की जो लाइनें दोहराईं थीं, वो काफी देर तक जेहन में कौंधती रहीं- बात बोलेगी, हम नहीं/भेद खोलेगी, बात ही।
पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी हैं। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।