धीरेंद्र पुंडीर
इधर माइक पकड़ा उधर भीड़ ने उत्साह के साथ तालियां बजानी शुरू कर दी। दूर तक नजर जा रही भीड़ उत्साहित दिख रही थी। और फिर सिद्धारमैया ने मंच पर बोलना शुरू किया। येदियुरप्पा…….। मंच पर एक नेता और अभिनेता के मिले-जुले रूप को देख रहा था, जिसका भीड़ के साथ पूरा कनेक्ट था। और कन्नड़ में उस भाषण को मैं उतना ही समझ पा रहा था जितना दस दिन में कन्नड़ समझ पाया था। मंच पर किसी मंझे हुए एक्टर की तरह बाकायदा अभिनय करते हुए एक नेता को देख रहा था।
अक्सर मंच पर इस तरह से लालू यादव को ही देखा था। लेकिन सिद्धारामैया उस अदा को कन्नड में दिखा रहे थे और भीड़ उत्साह से नारे लगा रही थी। मंच पर सिद्धारामैया कभी आगे की तरफ जाते कभी हाथों से हथकड़ी के इशारे करते या फिर एक वाक्य व्यंग्य में बोलकर चुप हो जाते और भीड़ बाकी के शब्द भर देती, ये एक नेता का जादू था। एक एक कर सिद्धा अपने वादों के पूरे होने का हलफिया बयान जनता की अदालत में दिया और उनके समर्थक उस पर मुहर लगाते रहे। ये जगह भी खास थी और ये रैली भी। सिद्धा इस बार सीधे येदुयेरप्पा के घर में थे।
कुछ सौ मीटर दूर ही बीजेपी के मुख्यमंत्री के चेहरे और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का घर था। और उनके बेटे राघवेन्द्र के इस्तीफे के बाद अब वहां से फिर से येदियुरप्पा चुनाव लड़ रहे हैं। रैली की आवाज घर तक जरूर जा रही होगी। रैली में ज्यादातर भीड़ में किसान और अल्पसंख्यक वर्ग की उपस्थिति दिख रही थी। भीड़ के समर्थन से उत्साहित सिद्धा ने फिर बात मोदी तक पहुंचा दी। और शुरू किया मोदी के वादों पर मजाकिया अंदाज में भीड़ से संवाद करना। और भीड़ ने भी ज्यादातर इसी तरह से जवाब दिया। मंच पर भाषण के दौरान उम्मीदवार सिर्फ हाथ जोड़ कर खड़ा रहा था कभी वो सिद्धारामैया की ओर देखता था और कभी भीड़ की ओर। न भीड़ को उससे मतलब था और न ही सिद्धारामैया को, ये सिर्फ सिद्धारामैया और भीड़ के बीच संवाद था।
रैली के बाद सिद्धारामैया की कार के पास पहुंच कर एक सवाल किया तो सिद्धा ने कहा कि वो हिंदी न समझते हैं और न बोल पाते हैं। मैंने हसंते हुए सवाल को इंग्लिश में दोहराया तो उन्होंने कार में बैठते-बैठते इसका जवाब दिया। ये सिद्धा की एक्टिंग का मेरे सामने उत्स था। मैं मंच पर कई वाक्यों को आराम से हिंदी में बोलते हुए सुन चुका था और ये भी जानता था कि सिद्धा के लिए इस बार एक मुद्दा है -इसीलिए मुझे हिंदी में जवाब की उम्मीद नहीं थी। लेकिन क्या इस पर जनता की मुहर लग गई है, ये ही सोचता हुआ अगले शहर की ओर बढ़ गया।
“सर मेरी मां की बहन है, उसको हिंदी सुनना भी नहीं आता है बोलना तो दूर की बात है, लेकिन आजकल मेरे घर में कोई भी आईपीएल नहीं देख पाता अगर उस वक्त मोदी आ रहे होते हैं। मैने पूछा क्यों भाई इस पर रिपोर्टर का जवाब था कि मौसी किसी को हटाने नहीं देती मोदी से चैनल और बोलती है कि अच्छा बोल रहा है और पूछती है क्या कह रहा है। और हम लोग मजाक में मौसी को सताते हैं कि वो सबसे मिलने कल घर आ रहा है। सर ऐसी है मोदी के चाहना, उसको गांव में भी लोग सुनते हैं।”
रानी चेनम्मा सर्किल के साईड में उत्कल के पास राजन्ना कोरबी के घर में उसका इंतजार कर रहा था। कोरबी से बात करनी थी क्योंकि किसान के तौर पर कोरबी ऐसे शहर में चुनाव लड़ रहे हैं जो देश के कॉमर्शियल शहरों में से एक में आती है। और वहां एक स्थानीय पत्रकार मेरे पास आ गए थे और मैंने बातचीत का सिरा पकड़ कर बात शुरू की थी तो उसने मोदी की लोकप्रियता का एक किस्सा सुना दिया। मैं वहां से निकल कर रानी चैनम्मा सर्किल वापस पहुंचा तो देखा कि चारों तरफ से भीड़ निकल रही है। किसी के चेहरे पर मोदी का मुखौटा है तो किसी के हाथों में बीजेपी के झडे, किसी के हाथ में टोपी या फिर किसी के गले में पार्टी का मफलरनुमा कपड़ा। हर कोई मोदी मोदी चिल्ला रहा था। कैमरे की ओर देखते हुए लोग वी का निशान बनाते हुए पूरे गले से नारे लगाते हुए बढ़ रहे थे। महिला कार्यकर्ताओं का हुजूम भी उधर से गुजरा तो मैंने रोक कर पूछना शुरू किया। सबकी आवाज एक ही थी और वो सिर्फ मोदी-मोदी का ही नारा लगा रही थी। मैंने पूछा कि पहले येदियुरप्पा या फिर मोदी -जवाब में सिर्फ मोदी निकल कर आ रहा था।
बैंगलोर पहुंचने के बाद से ये ही देखता आ रहा हूं। सिद्धारामैया की छवि एक जननेता की है जो कन्नड़ और गरीब आदमियों के हितों की ओर देखता है। कन्नड़ लोगों ने एक और क्षेत्रीय नेता को हासिल कर लिया। राहुल गांधी का नाम पूछने पर ही कोई बोलता था। कैमरे में सबकुछ रिकॉर्ड करना होता है और हमारी दौड़ तो 2019 का पता लगाने की थी तो राहुल का नाम भी लेना होता है। लेकिन चुनाव से पहले दसियों शहर घूमने के बाद यही अंदाजा लगा पाया कि सिद्धारमैया ने जातियों का बैरियर काफी हद तक तोड़ दिया है और अपने लिए वफादार वोटर का एक वर्ग तैयार भी कर लिया। ये साफ दिखने लगा कि अगर मुकाबला सिर्फ सिद्धारामैया और येदियुरप्पा के बीच सिमटा होता तो शायद येदियुरप्पा पिछड़ जाते और बाजी सिद्धारामैया के हाथ लग जाती।
कुमारस्वामी का अपना एक वोटबैंक है और वो ज्यादातर जगह सिर्फ जाति पर ही आधारित है जो कि हम यूपी और बिहार के जातिवादी नेताओ की भीड़ में देखते हैं, वो अपनी जाति और अल्पसंख्यक वर्ग के साथ मिलकर वोट बैंक का गणित बैठाते हैं। ऐसी स्थिति में कुमारस्वामी हैं। गांव में उनके वोटबैंक के सामने कोई दुविधा नहीं है, बस वो कुमार स्वामी के नाम पर वोट करने वाले हैं। ऐसे में एक खास पॉकेट में उनका वोटबैंक है। लेकिन सिद्धारामैया ने कुरबी समाज के अलावा दूसरे वर्गों में अपनी एक पहचान तैयार कर ली है। सिद्धारामैया की जीत में आड़े आ रही है कर्नाटक में मोदी की लोकप्रियता।
गांव गांव में किसी से बीजेपी का नाम लेते ही अगर वो शान में कुछ भी बोलता है तो सबसे पहला शब्द मोदी का लेता है उसके बाद ही येदुयेरप्पा का नाम लेता है। मोदी एक बार फिर से बीजेपी के स्टार बन पार्टी के वोट खेंचू नेता हैं। जगह-जगह सिर्फ मोदी ही बीजेपी के ब्रांड दिख रहे हैं। और ये बात एक दूसरे के उलट दिख रही है एक तरफ तो कन्नड़ झंडा, और कन्नड़ भाषा के सवाल पर लामबंदी है तो दूसरी तरफ हिंदी में बोलते हुए एक गैर कन्नड़ नेता के पीछे भीड़ का एक बड़ा तबका दीवानावार बोल रहा है। और यही वो पेंच है जो सिद्धारामैया को दूसरी बार कुर्सी तक पहुंचने के बीच रोड़ा अटका सकता है। सिद्धारमैया ने भी इस पूरे मुकाबले में मोदी पर हमला बोलने का आक्रामक अंदाज अपनाया है और ये भी अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी ओर खींचने और जनतादल एस को कमजोर करने की कोशिश की। लेकिन यही बात उनको भी कमजोर कर रही है। क्योंकि मोदी समर्थकों के लिए ये राज्य की नहीं मोदी की लड़ाई हो गई है और वो भी फेटा कस कर उतर गए हैं।
इस पूरे मसले में सबसे पेचीदा हालात है जेडीएस के वोटर की। रामकृष्ण हेगड़े के टाइम से ये वोटर अमूमन कांग्रेस का एंटी रहा है और विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत रहा है। इस बार भी अभी तक वो पहला वोट जेडीएस को ही देने की बात कर रहा है लेकिन जैसे ही हम उससे पूछते है कि सेंटर में कौन तो ज्यादातर (अगर शतप्रतिशत नहीं) की जुबां पर मोदी का ही नाम आता है। और मुझे यही सिद्धा की सबसे बड़ी परेशानी लग रही है। क्योंकि ये वोटबैंक अगर ये देखता है कि सिद्धा को रोकने में जेडीएस सफल नहीं हो रहा है तो वो वोट खराब नहीं करने के नाम पर बीजेपी को वोट कर सकता है। ऐसे में बीजेपी को रोकना का कांग्रेसी गणित पूरी तरह से फेल हो सकता है।
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धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही आपकी अपनी विशिष्ट पहचान है।