प्रवीण कुमार
दस्तक की यादों के सिलसिले को साझा करने के लिए कई साथी सामने आए हैं, आलम यह है कि दिन बीतने के साथ-साथ सत्रों की संख्या भी बढ़ती जा रही है । मनीष सर, रंजीत बाबू, रूपेश बाबू , रवि और सचिन के उकसाने के बाद मैं भी खुद को रोक नहीं पा रहा। बोलने में दिलचस्पी नहीं, इसलिए हे ! पाश (सर) आपके नाम आधी रात को पाती लिख रहा हूं।
दस्तक ; जिसे हम न छोड़ सकते हैं, न दुबारा पकड़ सकते हैं
प्रिय पाश,
करोना काल में सालों पुरानी स्मृति …, लगता है कल की ही बात हो… बातें लंबी हैं कोशिश करता हूं याद करने की।
दृश्य : एक
हां, तो बात 2000 की है। राजकमल नायक (एक लड़की पांच दीवाने में अभ्यास के दौरान) तुम डायलॉग पर ध्यान दो…, यार लगता है पिटेगा, मंचन के बाद कंधे पर हाथ रखत हुए तुमने निराश नहीं किया.
दृश्य : दो
अखिलेश्वर यार प्रवीण ” अनायास” के लिए कुछ लिखोगे, नहीं अगले अंक में देखता हूं, फिर भी… और अनायास का अंक हमारे हाथ में.
दृश्य ;तीन
पांच छह माह बाद पुष्यमित्र (सर) से परिचय, गोल्ड फ्लैग निकालते हुए क्या लोगे,नहीं आदत नहीं…और क्या करते हो, कुछ लिखते हो, नहीं किताब पढ़ने की और घूमने की चाहत, ओह. नए लोगों को पढ़ो। कुछ दिन बाद निर्मलजी की रचना ‘रोमियो जूलियट’ और ‘अंधेरा’ देते हुए मजा आएगा. चलो, मंजूर सर से मिलते हैं…
मंजूर सर विल्स फ्लेक एक पुष्य और और एक मेरी ओर बढ़ाते हैं.. कश के साथ बात का आनंद लेता हूं…. तुम कब से…
बहराल, पुष्य से करीबी बढ़ते गई। अरेरा से त्रिलंगा पैदल सफर , घंटों चर्चा.. उपन्यास, हालात, दर्शन सब पर।
एक दिन अपने आवास पर ले जाकर मनीष (सर) से रू ब रू करवाया… मनीष को बातों में लगा ये भी पढ़ा लिखा है. लाल कलम से लिखी हुई कुछ कविताएं सुनाने के बाद “कनुप्रिया” और “भटको नहीं धनंजय” पुस्तक देते हुए यार “अनायास”, अब तुम्ही निकालो न। देखता हूं…पुष्य दखल देते हुए रात में रूक कर आज यहीं सब्जेक्ट तय कर लेगा। राजन व पीडी का सिस्टम है ही…, फिर जयंत सिन्हा (सर) भी पहुंचे। तंज कसते हुए खाली फूंके जा रहा है, कुछ खिलाया है या नहीं…,नहीं आज अनायास निकलेगा….
(इस तरह “अनायास” ही “दस्तक” में विधिवत प्रवेश हुआ, अब तक गेस्ट फैकल्टी के रूप में था, शुक्रिया पुष्य)
दृश्य: चार
जनवरी 2001, जयंत भाई साकेत नगर मेरे कमरे पर पहुंचे, गुजरात में भूकंप आया है, चलना है, हमलोग शाम में नाटक के बाद तय करेंगे। ऊहापोह ..थर्ड सेमेस्टर का एग्जाम और गुजरात। विनय मेरे साथ मंथन में जुटा है, फिर जयंत भाई के दखल से चल पड़ते हैं भुज।
भोपाल स्टेशन पहुंचते हैं रामशरण जोशी सर और पीपी सर। इस यात्रा में हमारा पूर्ण परिचय होता है राजन भाई, अखलाक, परितोष, अनुराग,सचिन, सुधाकर,मोहन जैसे दोस्तों से। लौटते वक़्त अहमदाबाद स्टेशन पर उप्पल मैडम से हमारी मुलाकात होती है.
(शुक्रिया जयंत भैया। गुजरात यात्रा हमारे जीवन की धरोहर है। तो इस तरह मैं “दस्तक” का अंग बन गया। जो लड़का घर से कैरियर बनाने निकला था, अब जीवन को तलाशने लगा था। अर्थ तलाश रहा था, खुद के बारे में फैसले लेने लगा था. संभवतः ये दस्तक के मंच से अनायास ही होने लगा था।)
दृश्य :पांच
सफर जारी रहा, नाटकों का। मैं मंच परे सक्रिय होने लगा। “आषाढ़ का एक दिन “से लेकर “नाथूराम” तक प्रेस नोट, छोटे छोटे दुकान से एड का जुगाड़ करना ,और भी बहुत कुछ। इसी क्रम में रवि दुबे, अभिषेक राजन, अविकांत से प्रगाढ़ता बढ़ती गई। खास बात की एक अखबार के लिए नाटक की रिपोर्टिंग करने लगा. भारत भवन, रविन्द्र भवन एलबीटी के चक्कर लगाने लगा।
दृश्य : छह
फिर सुधीर सर के क्लास में “हिंद स्वराज” की पढ़ाई के कारण गांधी में दिलचस्पी लेने लगा तो अभिनेता रविभूषण भारतीय ने इसे भाप लिया।” गांधी की चोरी” में गांधी बना डाला। नतीजा यह हुआ की गांधी के बारे में सोचने लगा, सुधीर सर से चर्चा करने उनके घर तक पहुंच गया, गांधी पर सात किताब खरीद लाया। अन्ततः हसरत सर के सहयोग से गांधी सेवा आश्रम में काम करने लगा।
दृश्य : सात
अब पाश का दिल्ली से भोपाल आगमन। कई दौर की बातचीत के बाद दो नाटक तय होते हैं “आधे अंधरे समय में “और “मीडिया मर्सिया “और “अनायास का फिर से लोकार्पण।” देर रात तक संवाद और कहानी पर चर्चा होती है। हफ्ते भर की चर्चा के बाद सात नंबर पर शाम में नास्ता करते हुए पाश कहते हैं आप प्रोफेसर का रोल कर रहे हैं न। मैंने कहा आपका नाटक पिट जायेगा। मंच परे ही पूरी मदद करूंगा। अरे करें तो सही… हम देख लेंगे।
तीन चार दिन की जिरह के बाद मीडिया मर्सिया में अभिनय को मैं तैयार हो जाता हूं। अन्ततः में प्रोफेसर परमानंद की भूमिका में आता हूं। अभ्यास के दौरान इंदू मैडम बार बार डांटती है तुम्हारे कारण कुछ गड़बड़ होगा। लेकिन भारत भवन में मंचन के बाद जोशी सर की आंखों ने कह दिया उम्मीद से बेहतर। विजयदत श्रीधर सर, सुधीर सर और बघेल सर ने तो आओ परमानंद कह कर खुशी जाहिर की।
(शुक्रिया पाश सर, ऐसा आप ही कर सकते हैं, किसी के अंदर के अभिनय को बाहर लाना। न चाहते हुए भी किसी से वो काम करवा लेना, जो वह खुद भी न सोच सकता हो। आपके साथ बिताए वे पल आज सांसों से कह रहे हैं-“मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा हैं … मेरा वो सामान लौटा दो”. प्रोफेसर परमानंद का असर ये हुआ कि में एकेडमिक की तरफ रुचि लेने लगा दिल्ली में पाश सर के पास ही रह कर जेएनयू की तैयारी की पर असफल रहा, पर दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में समाजशास्त्र में प्रवेश परीक्षा पास कर गया, लेकिन उसी समय नौकरी मिली तो प्रोफेसर परमानंद ‘दैनिक उधेड़ बुन’ का सदस्य बन गया। )
दृश्य : आठ
नाटक “नाथूराम गोडसे आओ बातें करे “में गांधी की भूमिका में था, इसके अभ्यास में फिर इंदू मैडम से डांट लगी। मंचन के बाद पाश सर ने जब जोर से गले लगा लिया तो लगा इस बार भी पास हो गया। स्मृति मैडम के इस शब्द ने भरोसा बढ़ाया की पक्के गांधी लग रहे थे।
बहराल, पाश (सर), मैंने स्मृति में जाकर दस्तक दी तो कुछ बातें निकल पड़ी…। दस्तक ने उन लोगों से अभिनय करवाया, कविता पाठ करवाया, पत्रिका निकलवाई, दुनिया को समझने की समझ दी , जिसका अहसास उन्हें भी नहीं था। ऐसे दोस्त दिए, ऐसे पल दिए जिसपर अभिमान है। वो रिश्ता दिया, जहां खुशी बांट सके, किसी के कंधे पर सिसक सके। लेकिन, पाश खुशी जो है न अक्सर भयभीत कर देती है, अगर हम उसपर ऊंगली न रख सकें।
अंत में निर्मल के शब्दों में जब वो पल आता है जिसे हम अन्तिम कहते हैं , तब वो अंतिम बिल्कुल नहीं लगता। लगता है, जैसे कोई पुरानी पहचानी सी घड़ी वापस लौट आई है एक जिए हुए पल की बासी छाया सी, जिसे हम न छोड़ सकते हैं, न दुबारा पकड़ सकते हैं।”
वैसे भी समय वहां वहां है, जहां जहां हम बीते हैं। तो उन पलों को रहने दो पाश। अब कुछ परत जम गई है.
तो चलते हैं वर्तमान में…
आपका
प्रोफेसर परमानंद
(प्रवीण)
प्रवीण कुमार। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढाई। दस्तक के सक्रिय सदस्य। संप्रति रांची में कार्यरत। साधारण बने रहने की चिर आकांक्षा से ओत-प्रोत प्रवीण कुमार ने अपनी एक अलग ही जीवन शैली और संवाद शैली बनाई है। आपकी खामोशी में संवाद की अनंत संभावनाएं हैं।