अरुण यादव
इधर कुछ दिनों से दफ्तर के कामकाज ने इस कदर उलझा रखा था कि समाज और साहित्य दोनों से ही मैं जैसे कटता चला गया। इस बीच ऑस्ट्रेलिया में हिंदी के प्रोफेसर ईयान बाबू के ट्वीटर वॉल पर लमही की एक तस्वीर देखने को मिली। प्रेमचंद के गांव का ख्याल आते ही उनके उपन्यासों और कहानियों के कई किरदार अनायास जेहन में ज़िंदा हो उठे। इत्तेफ़ाक से बनारस जाने का मौक़ा भी हाथ लग गया। वहां पहुंच मैं उस लमहे का इंतजार करने लगा कि जब मैं लमही में होऊं। मुराद पूरी हुई। मैं लमही के एंट्री गेट पर था।
वाराणसी कैंट से करीब साढ़े सात किमी दूर । उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का गांव लमही । ‘प्रेमचंद्र स्मृति द्वार’ के दोनों ओर बैठे बैल हीरा और मोती की याद दिला गए। वहीं हल लिए किसान की प्रतिमा देख कृषक जीवन के महाकाव्य ‘गोदान’ के हीरो- होरी की यादें ताजा हो उठीं। नए उभरते भारत की चकाचौंध और भविष्य के बनते-दरकते सपनों से दूर मैं उन अफसानों में खोया था जहां गोबर, धनिया, घीसू जैसे किरदार जीवन की धूप-छांव से रोज़ाना दो-चार होते हैं। प्रेमचंद द्वार से आगे बढ़ते ही सड़क के दोनों तरफ सब्ज़ी मंडी नज़र आती है। जहां लमही के किसान साग-सब्जी ख़रीदने -बेचने आते हैं । दूसरे गांवों की तुलना में लमही में साफ-सफाई ठीक-ठाक है। गांव के बीचों-बीच प्रेमचंद सरोवर है। तालाब के चारों किनारों को बढिया सजाया हुआ है। सरोवर में पानी की कमी होने पर पास में लगे पंपिंगसेट का सहारा लिया जाता है। कोई कूड़ा बाहर न फेंके इसके लिए कूड़ेदान रखे गए हैं। भई वाह।
सरोवर के ठीक बगल में विराजमान है प्रेमचंद का पुस्तैनी मकान । मकान अब प्रेमचंद स्मारक का रूप ले चुका है । यहां मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा लगाई गई है । स्मारक की देखरेख करने वाले उमेश चंद्र बताते हैं कि जिस जगह प्रतिमा लगी है उसी स्थान पर साल 1880 में प्रेमचंद का जन्म हुआ था । स्मारक के बायीं ओर एक बड़ी सी लाइब्रेरी दिखी। लाइब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद की कृतियों को रखा देख एहसास हुआ कि अभी प्रेमचंद को जानना-पढ़ना बाक़ी है।
सोचने लगा कि प्रेमचंद की तक़रीबन तीन सौ कहानियों में से हमने आधी भी नहीं पढ़ी होगी। इतने में दीवार पर लटके चिमटे को देख संतोष हुआ कि स्कूल के सिलेबस में ही सही, ईदगाह कहानी हमने भी पढ़ रखी है। किसी को बताने की ज़रुरत नहीं पड़ी कि ये चिमटा हामिद का है जो उसने अपनी बूढ़ी दादी के लिए खरीदा था। बगल में ही खिड़की पर एक गुल्ली-डंडा लटका है । कहानी याद आ गई। कितनी उम्दा शुरुआत थी।
“हमारे अंग्रेजी दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूं तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूं। न लॉन की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की…..”मैं भी जैसे इसी खेल में मगन हो गया था। तभी लाइब्रेरी संचालक सुरेश बाबू की आवाज़ से जैसे तंद्रा टूटी। मुझे बताया गया कि रोज़ाना बड़ी तादाद में लोग यहां किताबें पढ़ने आते हैं और इनमें महिलाएं भी होती हैं ।
लाइब्रेरी के ठीक बगल में ही प्रेमचंद का वो घर भी मौजूद है जिसमें दूसरी शादी के बाद प्रेमचंद रहते थे। सुरेश चंद्र बताते हैं कि विधवा विवाह के खिलाफ आवाज उठाते हुए प्रेमचंद खुद एक विधवा को ब्याह कर घर ले आए। तब उनको भी समाज और परिवार की मुखालफत झेलनी पड़ी। उन्हें घर में दाखिल नहीं होने दिया गया। अलबत्ता बगल में बने घर का दरवाजा खोल दिया गया और प्रेमचंद अपनी पत्नी के साथ इस मकान में रहने लगे ।
घर के हर कोने में उनकी यादें मौजूद हैं। सबसे ऊपर के कमरे में प्रेमचंद लिखने-पढ़ने का काम करते थे। सबसे नीचे वाले हिस्से में किचन बना था और मेहमानों के ठहरने का इंतजाम। तीन मंजिला इस मकान के बीच में आंगन है। आंगन से होते हुए सीढ़ी आपको पहली और दूसरी मंजिल तक ले जाती है। सबसे ऊपर दो कमरे बने हैं, जिसमें बैठकर प्रेमचंदजी ने कई रचनाएं कीं। मुंशी प्रेमचंद के पुश्तैनी घर के ठीक बगल में सड़क की दूसरी ओर रिसर्च सेंटर तैयार किया गया है ।
बीएचयू की मदद से तैयार इस दो मंजिले रिसर्च सेंटर में एक कॉमन हॉल बना है जहां छात्रों के बैठकर पढ़ने के लिए पर्याप्त जगह है। ये रिसर्च सेंटर जल्द ही खुल जाएगा, जिससे देश-विदेश से आने वाले सैलानियों और छात्रों को प्रेमचंद को जानने और समझने में आसानी होगी। वक्त कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। शाम हो गई, लौटना भी था। हम मोटर में बैठे । पास से गुजरते तांगे ने फिर प्रेमचंद के अफसानों की दुनिया में ला छोड़ा। “अब न पहले के-से मेहरबान रहे न पहले की-सी हालत। खुदा जाने शराफत कहां गायब हो गई। मोटर के साथ हवा हुई जाती है.”
अरुण यादव। उत्तरप्रदेश के जौनपुर के निवासी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय।
मुंशी प्रेमचंदके लमही दर्शनतीर्थाटन के समान है।यह साहित्यिक तीर्थ है।यह जान कर संतोष हुआ कि इसे पर्यटन स्थल के रूप मे विकसित किया गया है,रामबृक्ष बेनी पुरी के गांव बेनीपुर की तरह विरान नही है ।
उसी गुल्ली डंडा कू खेल मे एंडी,दोंडी, तेंडी, चौडी ,चम्प एकंत,दूदंत, सिराईमन सित्तो भी कहते थे ।हमारे यहां इन शब्दों का विशेष अर्थ होता था। यह घुच्ची से गुल्ली के बीच की दूरी डंडा से नापने की ईकाई थी ।सित्तो माने खिलाडी जीत गया।