शिरीष खरे
हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के रावणभाठा मैदान में हैं। यहां सुबह-सुबह किसान अपने बैलों को सजा-धजाकर लाए हैं। किसी ने बैलों के सींग पर मोर पंख लगाए हैं। कोई अपने बैलों के गले और पैरों में घुंघरू बांधकर लाया है। कोई बैलों की पीठ पर चमकदार चादर सजाकर घूम रहा है। यहां घुंघरू बांधे संगीत की धुन पर बैलों को दौड़ाने की तैयारी की जा रही है।
यह छत्तीसगढ़ के पारंपरिक पर्व पोला पर बैल-दौड़ प्रतियोगिता का मौका था। छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले त्योहारों में पोला का खास महत्व है। एक दौर था जब छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में पोला पर मस्ती में चूर बैलों के बीच दौड़ की होड़ होती थी। मगर तकनीक के जमाने में यह खेल प्रतियोगिता लुप्त हो रही है। वजह है कि इन दिनों खेतों में ट्रैक्टर की मदद से जुताई का काम किया जाता है। फिर भी कई किसानों के लिए इस ‘ट्रैक्टर युग’ में बैलों का महत्व बना हुआ है। ऐसे में पुराने दिनों की यादों को तरोताजा करने के लिए श्रीकष्ण जन्माष्टी उत्सव व विकास समिति, रायपुर ने बैल-दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन रायपुर के रावणभाठा मैदान में कराया तो हजारों की तादाद में भीड़ यहां उमड़ पड़ी।
करीब 15 हजार लोगों की भीड़ से मैदान भरा हुआ था। बड़े-बूढ़े जैसे अपने बचपन में लौटने के लिए एकत्रित हो गए। बच्चे भी दूर से ही इसका मजा ले रहे थे। बैलों की यह दौड़ सालाना परंपरा का हिस्सा है। इसमें बैलों के मालिकों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है। ग्रामीण जीतने वाली जोड़ियों पर दांव लगाते हैं। बीते कई सालों से लगातार बढ़ती लोकप्रियता और बैल धावकों के साथ दर्शकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इस साल भी बैल दौड़ के लिए विशेष इंतजाम किए गए। इस बार 22 जोड़ी बैलों और धावकों ने प्रतियोगिता में भाग लिया। धावकों ने अपने बैलों की पूजा-अर्चना की और ठेठरी, खुरमी, चीला जैसे छत्तीसगढ़ व्यंजनों का भोग भी लगाया।
दोपहर बाद कोई 4 बजे बैल दौड़ प्रतियोगिता का आगाज होता है। धावकों के इशारे पर सजे-धजे बैल खूब दौड़े। पैरों में घुंघरू बांधकर जब वे दौड़े तो घुंघरुओं की आवाज ने माहौल में नया जोश भर दिया। कई बैल पीछे छूट गए। इससे एक बार फिर दौड़ कराई गई। फिर आगे-आगे बैल और पीछे लगाम थामे उनके मालिक सरपट भागे। दौड़ते बैलों के पीछे धूल का गुबार उठता रहा। बैलों को हांकने के लिए ‘हुर्रर..रा’ की आवाज भी लगातार गूंजती रही। बैलों की रस्सी थामे दौड़ रहे कई धावक बैलों की रफ्तार पर लगाम न कसने के कारण गिर पड़े। घुंघरू बांधे संगीत की धुन पर बैल की दौड़ से धूम मच गई। कोई महादेव, कोई शिव, कोई गणेश, कोई सुल्तान तो कोई रुस्तम तो कोई जय-वीरू, हीरा-मोती और शेरू-वीरू जैसे नामों से अपने-अपने बैलों को चिल्लाकर जीतने का दम भर रहा था।
इधर, छत्तीसगढ़ी कवि उपस्थित दर्शकों को अपनी चुटीली रचनाओं से पूरे कार्यक्रम के दौरान हंसाते रहे। एक नया चलन सेल्फी का भी दिखा। लोग बैलों के साथ सेल्फी लेते भी दिखे। आखिरकार, बैलों की दौड़ खत्म होती है। इस खेल प्रतियोगिता में माकन सोनकर प्रथम, उमेश सोनकर द्वितीय और कन्हैया सोनकर तीसरे स्थान पर रहे। इस स्पर्धा में जय-वीरू की जोड़ी सबके आकर्षण का केंद्र रही। यही जोड़ी सजावटी स्पर्धा में विजेता रही। खेल प्रतियोगिता में प्रथम रहे माकन सोनकर बताते हैं, “यह बैल दौड़ जीतने और हारने के लिए नहीं थी. यह परम्परा निभाने के लिए थी।”
एक बुजुर्ग बताते हैं, “पहली बारिश के बाद मिट्टी की ऊपरी परत खुरचने के लिए इस दौड़ का आयोजन किया जाता था। मगर अब यह एक परंपरा बन गई है.” आयोजनकर्ता माधवलाल यादव बताते हैं, “किसान बैलों की वजह से धन-धान्य से भरपूर रहता है, इसलिए साल में एक दिन इस पर्व के बहाने हम बैलों के प्रति कृतज्ञता जाहिर करते हैं।” छन्नूलाल देवांगन का कहना है, “इस बार बैल दौड़ में सबसे ज्यादा भीड़ उमड़ी। वजह है कि रायपुर के अलावा कई जिलों में यह खेल प्रतियोगिता अब नहीं होती। लोगों का संस्कृति के प्रति रुझान फिर बढ़ने लगा है।”
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति राजस्थान पत्रिका के लिए रायपुर से रिपोर्टिंग कर रहे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।