देश में कब महफूज होंगी बेटियां ?

देश में कब महफूज होंगी बेटियां ?


nirbhaya2कीर्ति दीक्षित

निर्भया के माता पिता चार साल बाद भी बेटी को न्याय दिलाने के लिए  सुप्रीम कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं बस अब उनके साथ ना कोई नेता दिखता है, ना कोई मोमबत्ती जलाने वाला इतना ही नहीं पतन की पराकाष्ठा ही कहिये जिन्होंने निर्भया के बलात्कार को सीढ़ी बनाकर सत्ता पाई वे ही लोग आज उसके सबसे जघन्य अपराधी को अच्छे जीवनयापन के लिए  मशीनें और धन मुहैया करा अपनी पीठ थपथपाते फिरते मिल जाएंगे, अब कहिये सजा किसको मिली ? संभवतः एक बड़े बुद्धिजीवियों के वर्ग के पास इस विषय पर अपने तर्क होंगे लेकिन एक बार उन माता पिता के दृष्टिकोण से सोच के देखिये क्या बीती होगी उनके हृदय पर जिनकी बेटी इस आतातायी व्यवस्था की भेंट चढ़ गई, और आज वे अकेले इसी व्यवस्था के सामने लड़ रहे हैं, क्या वे अपराधी हैं क्यों उनके साथ कोई वास्तव में खड़ा नहीं दिखता?

शायद यही वजह है कि निर्भया की मां को यहां तक कहना पड़ा किऐसी घटनाओं के बाद समाज से लेकर बड़े-बड़े राजनेता, मंत्री तक साथ खड़े दिखाई पड़ते हैं लेकिन दस दिन बाद हमारे साथ दस लोग भी खड़े नहीं दिखाई पड़ते और गुनहगारों को बचाने के लिए  सैकड़ों लोग खड़े हैं, यहाँ तक कि हमारी बच्ची के साथ सबसे अधिक जघन्यता करने वाले उस नाबालिग अपराधी को दिल्ली  सरकार की ओर से सिलाई मशीन और पैसे जीवनयापन के लिए दिये गए , ये दिल्ली सरकार ने अच्छा नहीं किया, हमारे साथ अब कोई नहीं हमारे ईश्वर के सिवाय ।’

उस सोलह दिसंबर से आज की सोलह दिसंबर के बीच के दिनों में क्या गुजरा कैसे गुजरा ये ना तो किसी नेता को पता होगा ना ही नारे लगाने वाले समाज को ? चार साल पहले उस दौर में राजनीति ने अपना ऐसा चेहरा सामने लाया था कि जैसे राजनैतिक शुचिता का एक नया शीर्ष स्थापित होने वाला हो । सच है शीर्ष बना भी लेकिन राजनैतिक स्वांग का । कानून बने, डुग्गी पीटीं, नारे लगे, मोमबत्तियां जलीं लेकिन जब ये नारे लग रहे थे तब भी बेटियां निर्भया बन रहीं थीं और अब भी। कानून अपने कान के मैल को लकड़ी से मथने में तब भी लगा था और अब भी। आज की स्थिति ये है कि राज्यों को दिया गया निर्भया फण्ड का उपयोग भी ठीक से नहीं हो सका ।दिसंबर आता है मीडिया में दो-चार दिन हो हल्ला मचता है और फिर भूल जाते हैं सभी । हमारी संवेदनहीनता की हद यहाँ तक आ पहुँची है कि किसी के साथ हुई जघन्यता को भी अपने लिये अवसर समझने लगे हैं और फिर राजनीति को ही क्यों दोष दें इस अपराध के हम सब सहभागी हैं हमें कोई निर्भया याद नहीं आती जब तक वह हमारे लिए  अवसर ना हो ।हालात तो तब और बिगड़े जाते हैं जब सियासी जमात के सुर में सुर पत्रकार भी मिलाने लगते हैं । ऐसे हालात को हरिशंकर परसाईं के कथन से समझा जा सकता है-

हम कहाँ के पवित्र हैं ! अधिकांश ने अपनी लेखनी को वेश्या बना दिया है जो पैसे के लिए  किसी के भी साथ हो लेती है, सत्ता इस लेखनी के साथ बलात्कार कर लेती है और हम रिपोर्ट तक नहीं करते । कितने नीचों की तारीफ मैनें नहीं लिखी, अखबारों के मालिकों को देखकर मेरे सत्य ने रूप बदले हैं ।’nirbhaya

हमारे पास विश्व का सबसे पुराना राजनैतिक इतिहास है, जिस पर हम गर्व करते नहीं थकते, लेकिन आज अपने समय की राजनीति को देखती हूँ तो सोचती हूँ कि किस प्रकार से इसका चरित्र इतिहास में गढ़ा जाएगा सम्भवतः स्याह रंग भी आज की राजनीति के चरित्र में ढलने से स्वयं को अपमानित महसूस करेगा। और राजनीति ही क्यों हम आप किस रूप में दर्ज होंगे कैसा दोहरा चेहरा लेकर हमारा समाज इतिहास के सम्मुख जाएगा ।

अपहरण शोषण बही कुत्सित अभियान,

खोजना चढ़ दूसरों के भस्म पर उत्थान,

शील से सुलझा न सकना आपसी व्यवहार,

दौड़ना रह-रह उठा उन्माद की तलवार ।’


कीर्ति दीक्षित। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले के राठ की निवासी। इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट रहीं। पांच साल तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों में नौकरी की। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता। जीवन को कामयाब बनाने से ज़्यादा उसकी सार्थकता की संभावनाएं तलाशने में यकीन रखती हैं कीर्ति। जनऊ नाम से प्रकाशित आपका पहला उपन्यास काफी चर्चा का विषय रहा ।

One thought on “देश में कब महफूज होंगी बेटियां ?

  1. कीर्ति दीक्षित जी ने बडा महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है ।मेरा खुद का यह मानना है कि आक्रोश/जनाक्रोश कभी जनान्दोलन नही होता ।दूध के उफान की तरह एकबारगी उफनाकर फिर शांत हो जाता है।16/12के निर्भया कांड के बाद यही हुआ था ।अनेको बार इससे पहले और बाद मे भी ऐसा ही हुआ है ।लोग सडको पर उतरे, नारे लगाए ,आगजनी और मार काट किया फिर शांत हो गये ।मीडिया ने इसे आंदोलन कहा जो सर्वथा गलत था ःआंदोलन एक खास राजनीतिक विचारधारा के तहत खास राजनीतिक पार्टी द्वाराउसके नेतृत्व में ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।य डगर बडी कठिन होती है ।किसी भी वर्ग विभाजित समाज में जैसा कि हमारा समाज भी है ,कार्यपालिका ,व्यवस्थापिका और न्याय पालिका अपने ही वर्ग हित में काम करती है ,करेगी भी ।हमें इस पूंजीवादी व्यवस्स्था जो तमाम तरह के शोषण उत्पीडन और अपसंस्कृति भ्रष्टाचार को पैदा कर रही है जो इन्ही कुरीतियैं के बल पर जिंदा है , उसे जडमूल से नष्ट किए बिना शोषणमुक्त वर्गविहीन समाज की स्थापना नही की जा सकती ।इसके लिए जनता का दीर्घ कलीन आंदोलन जरूरी हैः।आज के कथिय सुविधाभोगी बुद्धिजीवी ही इस मार्ग की बडी बडी रुकावट हैं।

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