डा.सुधांशु कुमार
… बात यदि मानवों तक की रहती तो एक बात थी किंतु यहां तो ‘छिच्छकों’ का अति पेचीदा मामला था। देखने- सुनने में मनुष्य के आकार-प्रकार की तरह लगने वाला यह जीव अजीब था ! यह स्वभावतः न सुर था, न असुर, न गण था, न यक्ष। यह आर्य-अनार्य की श्रेणी में भी नहीं आता था। उसकी प्रजाति के पेच सुलझाने में देवर्षि नारद के पसीने छूट रहे थे। शाख दांव पर थी। वह उड़-उड़कर सभी कक्षाओं का निरीक्षण करने लगे, किंतु एक भी कक्षा में ‘मास्टर साहेब’ के दर्शन न हो सके।
व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘नारद कमीशन’ का अंश
‘छिच्छक देवता’ नदारद ! सभी कक्षाओं की छात्र-छात्राएं उनकी अनुपस्थिति का पूर्ण लाभ उठा रहे थे। सभी अपने-अपने शिक्षणेतर क्रियाकलापों में अपूर्व तल्लीनता की मिसाल प्रस्तुत कर रहे थे ! किसी कक्षा में छात्र-छात्राएं समूह बनाकर ‘ग्रुप प्लेइंग मोड’ में ‘ओक्का बोक्का तीन तलोक्का लउआ लाठी चंदन काठी चंदना के नाम की ? जय विजय ढोरिया फुचुक्क !’ गा- गाकर खेल खेल रहे थे , तो किसी दूसरी कक्षा में कैशोरवय के छात्र-छात्राओं की धमनियों में रक्त का संचार तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा था और वह युवावस्था में कदम रखने को आतुर थीं। नव नूतन अनुभव को समेट-समेट कर सभी किशोर-किशोरियां अपने अपने दामन को भर रही थीं। कक्षा का कोना-कोना अपना-अपना इतिहास गढ़ रहा था, नई-नई कहानियों का गवाह बन रहा था ! इसका प्रत्यक्षदर्शी गुरुजी का खाली स्थान था।
निचली कक्षाओं की भी कमोवेश यही स्थिति थी। वहां बाल्यावस्था की चंचलता थी तो ऊपरी कक्षाओं में किशोरावस्था का ऊफान। यह ऊफान बाल्यावस्था के छात्रों की चंचलता में क्रियामान था। यह चंचलता धूल धूसरित मटमैले झोले को, बैग को किनारे रख-रखकर एक दूसरे के साथ तरह-तरह के खेल खेल रही थी और रह-रहकर उसी खेल के बीच-बीच में तीसरी घंटी के बजने की प्रतीक्षा कर रही थी, ताकि खिचड़ी-भोग कार्यक्रम में पेट की प्रदीप्त जठराग्नि शांत हो सके। यह खिचड़ी ही थी जो सभी गुदरी के लाल को यहां खींचकर लाती थी, अन्यथा यहां आने का ऐसा एक भी अन्य कारण नहीं था। रही बात किताब और ड्रेस की, तो उसके लिए वर्ष में एक दिन ही पर्याप्त है। खिचड़ी-दक्षिणा के रूप में मिले यूनिफार्म इनके तन को साल भर ढका करते थे, और किताब में टंकित अक्षर साल भर प्रतीक्षा ही करते रह जाते कि उनका कोई पाठ भी करेगा! अंततः उनकी किताबें और उनके परिधान -श्वेत पैंट- सलवार और नीली कमीज- समीज चंद दिनों में ही यूनिकलर मटमैला रूपधारी हो जाती।
मार्क्स के वर्गहीन समाज की परिकल्पना यहां रंगहीनता में आकार ग्रहण कर रही थी। सभी एक समान, एक साथ खेल रहे थे। सब के पेट की जठराग्नि का शमन खिचड़ी से ही हो रहा था। यमपुरी के शयनागार के वातायन से मार्क्स इन दृश्यों को देख फूले न समा रहे थे। कक्षा के बाहर जाड़े की गुनगुनी धूप में उपस्थित गुरुआइन गणिकाएं गोलाकार कुर्सियां लगाकर स्वेटर बुनती हुई ,उन स्वेटरों पर तरह तरह के फूल उगाती हुई, उन फूलों के सौंदर्य के संबंध में एक दूसरे से विमर्श करती हुई अपने-अपने स्वेटरों को अंतिम रूप देने में तल्लीन थीं। साथ ही बीच-बीच में ‘घरफोड़नी’ टी.वी. सीरियल भी अपडेट हो रहे थे। विभिन्न चरित्रों का चित्रण किया जा रहा था। इस क्रम में सामान्य राय बनाने की कोशिशें भी की जा रही थीं कि उसने जो किया वह ठीक नहीं किया, इसने जो किया वही ठीक माना जाएगा और जब यह ठीक माना जाएगा तो वह क्यों नहीं। उसकी साड़ी अच्छी थी लेकिन ब्लाउज से मैचिंग नहीं थी …। अब तो बनारसी साड़ी का जमाना भी नहीं रहा, अब तो कांजीवरम का मौसम है …।
अभी ‘छिच्छिका’ महोदया का सीरियल ज्ञान प्रसारित हो ही रहा था कि इतने में तीसरी कक्षा का एक छात्र दौड़ता हुआ पास आया और आते ही एक कंप्लेंट ठोक दिया-“मैडम जी ! तपेसरा ने हमारी पीठ पर कस कर एक मुक्का मारा बहुते जोर का ‘दड़द’ दे रहा है !” यह सुनते ही गुरुआइन खौलती हुई चाय की तरह ‘गरम’ हो गई -“क्यों मारा? वह क्या पागल है ? जरूर तुमने उसे उकसाया होगा ! कुछ न कुछ गलती अवश्य की होगी ! तू चेहरे से ही बदमाश दिखता है , तुम्हारे मुंह से ही बदमाशी टपकती है , गधा कहीं का ।” और यह कहते-कहते गुरुआइन की पांचों उंगलियां कब उस छात्र के गाल पर कांग्रेस पार्टी के चुनाव चिन्ह का विज्ञापन कर गईं, पता भी न चला ! पता तब चला , जब वह अपने गाल को दोनों हाथों से सहलाता हुआ नौ दो ग्यारह हो गया ! क्योंकि उसे मालूम था , कि ऐसी स्थिति में उसे क्या करना है !
उसे मिल्खा सिंह की तरह भागते हुए देखकर पांचों शिक्षिकाएं हंस पड़ी। हंसी तो मंद थी, किंतु सारगर्भित। वह जब रुकी, तब चौथी गुरुआइन अपने स्वेटर के कांटों को जुड़े में खोंसती हुई बोली-” तुम तो चाइल्ड साइकोलॉजी खूब समझती हो जी ! ‘एक्के थप्पड़’ में सभी प्रॉब्लम सॉल्व। सारे मर्ज की एक ही दवा – ‘थप्पड़माइसिन’ क्वीक एक्शन , क्वीक रिलीफ।वाह भई, वाह ! सब बीमारी की एक्के दवाई -थप्पड़ चांटा और कुटाई ।” इस पर पहली शिक्षिका बोली-” अब कोई भी ‘छोकरा’ स्वेटर बुनने में बाधा नहीं बनेगा और न ही यह गुस्ताखी करेगा। ऐसी सृजनात्मकता में ऐसी विध्वंसक बाधा ? यह तो बिल्कुल ही ‘इग्नोर’ नहीं किया जा सकता , ऐसे- ऐसे बदमिजाज को तो सबक मिलना ही चाहिए अन्यथा और बच्चे भी बिगड़ जाएंगे…. !!
डॉ सुधांशु कुमार- लेखक सिमुलतला आवासीय विद्यालय में अध्यापक हैं। भदई, मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी। मोबाइल नंबर- 7979862250 पर आप इनसे संपर्क कर सकते हैं। आपका व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘नारद कमीशन’ प्रकाशन की अंतिम प्रक्रिया में है।
A meaningful novel. Satirical – but that is only the form. Today life itself has become a satire – a sarcasm on those who have no choice but to live. The content is very powerful. Especially, our education system has really gone to dogs and bitches. I liked the excerpts from the novel so much that I cannot resist myself from laying my hands on it. I will procure it as soon as I can.