‘निंदक’ से इतनी नफरत ठीक नहीं मोदीजी

‘निंदक’ से इतनी नफरत ठीक नहीं मोदीजी

ब्रह्मानन्द ठाकुर

भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने पिछले दिनों केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों की जो आलोचना की है उसे लेकर पार्टी के एक खेमे में सिन्हा के प्रति आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी ने नाम लिए बिना यशवंत सिन्हा को महाभारत का शल्य तक करार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मोदीजी ने कहा कि जिस तरह शल्य कर्ण  के रथ का सारथी होते हुए युद्ध के मैदान में हमेशा कर्ण को हतोत्साहित करते रहे,  हमारी पार्टी के कुछ नेता आज वही काम कर रहे हैं। आरोप-प्रत्यारोप का दौर यहीं नहीं थमा। यशवंत सिन्हा के पुत्र जयंत सिन्हा केन्द्र सरकार में मंत्री हैं। उनसे यशवंत सिन्हा के आरोपों की काट में एक पत्र लिखवाया गया। उस पत्र में यशवंत सिन्हा द्वारा सरकार की आर्थिक नीतियों पर उठाए गये सवालों को सिरे से खारिज कर दिया गया। राजनीति ने इस मामले में बाप-बेटा दोनों को आमने-सामने खड़ा कर दिया। इतने ही पर अगर इस प्रकरण का पटाक्षेप हो जाता तो कोई बात होती। भाजपा के ही एक वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद कैलाश सारंग ने श्री सिन्हा को पत्र लिख कर अपने बेटे जयंत सिन्हा की भलाई और राजनीतिक भविष्य के लिए चुप रहने की नसीहत तक दे डाली। मानो देश का भविष्य एक व्यक्ति के भविष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण हो।

होना तो यह चाहिए कि पूर्व केन्द्रीय वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने अपने पत्र में देश की वर्तमान आर्थिक समस्याओं पर जो सवाल उठाए हैं, उस पर गम्भीरता से विचार हो। सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट का दौर जारी है, बेरोजगारी और मंहगाई बढ़ रही है। किसानों को उनके उत्पाद का लाभकारी मूल्य नहीं मिल रहा है। वे आत्महत्या करने को मजबूर हैं। आम जनता की जिंदगी तबाह हो रही है। इन समस्याओं के समाधान ढूंढे जाएं। देश की जनता ने बड़ी उम्मीदों के साथ भाजपा को देश की बागडोर सौंपी थी। उसकी भी कुछ अपेक्षाएं हैं। यशवंत सिन्हाजी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वित्तमंत्री रह चुके हैं। देश की आर्थिक नीतियों के बारे में उनका अपना अनुभव है। उन्होंने तो बस वही लिखा है, जो देश के वर्तमान हालात में आम लोग महसूस करते रहे हैं।

मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूं। अर्थशास्त्र का क ख ग भी नहीं जानता लेकिन देश में लगातार बढती मंहगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, सांस्कृतिक और नैतिक पतन, लूट, बलात्कार, विकास योजनाओं में भ्रष्टाचार और युवावर्ग मे भयंकर निराशा और हताशा की भावनाओं को महसूस तो कर ही रहा हूं। किसी भी लोकतांत्रिक समाज में ये तमाम बुराइयां उसकी आर्थिक नीतियों के कारण ही तो पैदा होती हैं। यशवंत सिन्हा ने यही तो कहा है कि पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी लागू कर केन्द्र सरकार ने देश के औद्योगिक विकास में बड़ा रोडा अटकाया है। अगर वे अपनी जगह गलत हैं तो इस पर हाय-तोबा मचाने की जगह कायदे से उसका जबाव दिया ही जाना चाहिए। लेकिन उनके विरोधियों में कुछ ने तो यहां तक कह दिया कि 80 साल की उम्र मे नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं। यह शिष्टता की तो हद हो गयी।

  इस बात से तो इन्कार नहीं किया जा सकता कि सरकार की आर्थिक नीतियों  को लेकर पार्टी के अंदर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं । इस साल अप्रैल-जून की तिमाही में जीडीपी गिरकर 5.7 प्रतिशत रह गयी है। इससे पिछली तिमाही में यह दर 6.1 थी। इसी अवधि मे पिछले वर्ष जीडीपी 7.9 थी। उत्पादन क्षेत्र में सकल मूल्यवृद्धि में भी गिरावट आई है। कच्चे तेल रिफाइनरी उत्पाद, उर्वरक,  सीमेंट सहित 8 क्षेत्रों में वृद्धि दर 2.4 प्रतिशत बताई जा रही है। उम्मीद तो यह थी कि यह वृद्धि 6.5 प्रतिशत होगी। आर्थिक विशेषज्ञ इस स्थिति को चिंता जनक बता रहे हैं।

 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार का वादा किया था। किसानों को उनके उत्पादन लागत का डेढगुणा न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात कही थी। वैसे इस बात की अनुशंसा काफी पहले स्वामीनाथन आयोग भी कर चुका है। 2014 में बीजेपी ने महंगाई को बड़ा मुद्दा बनाया था। विदेशों में जमा कालाधन वापस लाने, जमाखोरी, कालाबाजारी रोकने, मूल्य स्थिरीकरण, किसानों के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार की स्थापना जैसी जनकल्याणकारी कदम उठाने के वादे किए थे। यही काले धन का मुद्दा यूपीए की हार का एक कारण बना था। भाजपा की सरकार ने जब नोटबंदी लागू किया तो उसने अपने इस कदम को काले धन पर बडा प्रहार बताया लेकिन रिजर्व बैंक आफ इण्डिया द्वारा  इस सम्बंध में जारी आंकडे ने सरकार के दावों की हवा निकाल दी ।

  किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए शिक्षा उसकी रीढ  मानी जाती है।  1966 में कोठारी आयोग ने शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की अनुशंसा की थी। फिर इसके 30 साल बाद 1996 में सैकिया कमिटी ने भी इसी तरह की अनुशंसा करते हुए कहा कि इसकी 50 फीसदी राशि प्राथमिक शिक्षा पर खर्च किया जाए। तब से आज तक जितना भी आम बजट आय, शिक्षा का बजट जीडीपी का 4 प्रतिशत से कम ही रहा। केन्द्र की भाजपा सरकार ने वित्तीय वर्ष 2016–17 में 72 हजार 394 करोड़ रूपये शिक्षा के लिए आबंटित किया था जो जीडीपी का मात्र 3.3 प्रतिशत है। पिछले साल की तुलना में इस साल मात्र एक हजार करोड रूपये अधिक का प्रावधान शिक्षा के लिए किया गया है। इसमें स्कूली शिक्षा (प्राइमरी और सेकेन्ड्री )के लिए 46356.25 करोड रूपये का प्रावधान किया गया है। इतनी कम राशि से प्राथमिक शिक्षा की जरूरतें पूरी करना सम्भव नहीं । स्कूलों के मूल्यांकन के लिए वर्ष 2016–17 मे 5 करोड़ का बजट आबंटन था जिसे इस साल घटाकर मात्र 67 लाख रूपये कर दिया गया। इससे शिक्षा के प्रति सरकार की गम्भीरता का पता चलता है।

एनडीए की सहयोगी पार्टी, रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष  और केन्द्रीय मानव ससाधन राज्यमंत्री ने भी स्वीकार किया है कि देश में शिक्षकों के 10 लाख पद खाली हैं। बिहार में शिक्षकों के दो लाख पद रिक्त हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो लागू कर दिया गया लेकिन छात्र -शिक्षक अनुपात का निर्दिष्ट लक्ष्य प्राप्त करना आज भी काफी दूर है। खुद सरकार के आंकड़े कहते हैं कि देश में 28.7 करोड़ लोग अशिक्षित हैं। 10 वीं कक्षा तक आते-आते 62 प्रतिशत छात्र सँकूल छोड़ देते हैं। दलित और आदिवासियों के मामले में यह आंकडा 70-80 प्रतिशत है। कहा जा सकता है कि शिक्षा की यह स्याह तस्वीर पूर्ववर्ती सरकारों की बनाई हुई है लेकिन इसे सुधारने का दायित्व तो वर्तमान सरकार की होती ही है।

जहां तक बेरोजगारी की बात है तो खुद सरकार के आंकड़े बोलते हैं कि भारत में कुल जनसंख्या का 11 प्रतिशत यानि 12 करोड़ युवाओं को रोजगार की तलाश है।  भाजपा के अपने ही मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ ने कहा है कि नोटबंदी के बाद 20 लाख नौकरियां समाप्त हो गयीं हैं। केन्द्रीय श्रम मंत्री ने भी स्वीकार किया है कि देश में रोजगार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं और बेरोजगारी की दर में इजाफा हो रहा है।

सवाल यह भी है कि किस-किस की जुबान पर ताला लगाइएगा। सच्चाई से आंखें मूद लेना न तो देश हित में होगा और ना ही सत्तारूढ पार्टी के हित में। अगले लोकसभा चुनाव में अब केवल 18 महीने ही बचे है। जिन मुद्दों को लेकर जनता ने तब यूपीए को सत्ता से बाहर किया था, वे मुद्दे आज भी अपनी जगह यथावत हैं। वैसे भाजपा इस बात का दावा कर रही है कि 2014 की तुलना मे 2019 में उसे शानदार सफलता मिलेगी।लेकिन ऐसी खुशफहमी पालने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि आर्थिक मुद्दों पर उठाए जाने वाले विशेषज्ञों की राय पर आरोप-प्रत्यारोप की जगह उन मुद्दों पर गम्भीरता से विचार किया जाए।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।