अरविंद दास
वर्षों पहले किसी पत्रिका में एक लेख पढ़ा था- शादी हो तो मिथिला में। जाहिर है, इस लेख में जानकी और पुरुषोत्तम राम की शादी की चर्चा के साथ मिथिला की मेहमाननवाजी और संस्कृति का जिक्र था। पिछले कुछ दशकों में मिथिला क्षेत्र से भारी मात्रा में विस्थापन और पलायन हुआ है, लेकिन शादी-विवाह के लिए मध्यवर्ग वापस गांव-घर लौटता रहा है।पिछले दिनों जब ऐसे ही एक शादी में भाग लेने का मौका मिला, तो इस लेख की याद हो आयी। मिथिला की संस्कृति शादी-विवाह के अवसर पर अपनी संपूर्णता में निखरकर आती है। बात गीत-संगीत की हो, मिथिला पेंटिंग-सिक्की कला की हो या खान-पान में विन्यास की, इनमें एक निरंतरता दिखती है, पर ऐसा नहीं है कि इनमें बदलाव नहीं आया है।
अस्सी के दशक में ही ‘कैसेट कल्चर’ ने शादी-विवाह में ‘लाउड स्पीकर’ और तकनीक का प्रचलन बढ़ा दिया था। यही दौर था जब पद्म भूषण से सम्मानित शारदा सिन्हा के गाये लोक गीतों की धूम मची थी। आज भी शादी-विवाह का आंगन उनके गाये गीतों से गूंजता रहता है। बात चाहे ‘माय हे अयोध्या नगर के सिंदूरिया सिंदूर बेचे आयल हे’ की हो या ‘मोहे लेलखिन सजनी मोर मनवा पहुनवा राघो’ की। प्रसंगवश, शारदा सिन्हा अपनी ‘मैथिल पहचान’ को बार-बार रेखांकित करती रही हैं। वैसे भोजपुरी भाषा-भाषियों के बीच और हिंदी फिल्मों में गाये चर्चित गीतों के माध्यम से उनकी पहुंच राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक तक है, पर ऐसा नहीं है कि नयी पीढ़ी मैथिली लोक-गीतों से विमुख है। पसाहीन¸ कुमरम, लावा भुजाई, सिंदूर दान जैसी रस्मों में यह दिखायी देती है हां, जहां कहीं इनकी टेक टूटती है, वहां घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं संभाल लेती हैं।
पहले शादी-विवाह के दौरान महिलाओं की उपस्थिति परिवार के अंत:पुर में ही दिखती थी, वहीं पिछले कुछ वर्षों में बारात में भी वे नजर आने लगी हैं। सच तो यह है कि बारात में पुरुष बारातियों से ज्यादा उत्साह इनमें ही दिखता है। मिथिला में शादी के बाद नवविवाहित वर-वधू जिस घर में चार दिन तक रहते हैं, उसे कोहबर कहा जाता है। कोहबर की रस्मों के साथ मिथिला पेंटिंग लिपटी हुई है। शादी के अवसर पर जिस कागज में भरकर सिंदूर वर पक्ष की तरफ से वधू के यहां भेजा जाता है, उसमें से दो कोहबर, एक दशावतार, एक कमलदह और एक बांस लिखे होने का रिवाज आज भी है, पर समयाभाव के कारण अब एक दिन के बाद ही द्विरागमन (लड़की की विदाई) की प्रथा चल पड़ी है।
साथ ही शादी-बारात में खान-पान के समय जो रच-रच कर खाने का चलन था, वह भी अब कुछ कम हुआ है। इन वर्षों में शादी के समय बारातियों को जो गाली गीत (डहकन) से नवाजने की परंपरा थी, वह कहीं विलुप्त हो रही है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से नये संबंधों के प्रगाढ़ बनाने में यह एक मजबूत आधार का काम करता था।
अरविंद दास। पत्रकार एवं शोधार्थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में स्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता में डिप्लोमा। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी। ‘हिंदी में समाचार’ नामक पुस्तक लिखी। आप उनसे [email protected] पर संवाद कर सकते हैं।