पशुपति शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आया और चला गया. इस बार का ये महिला दिवस मेरे लिए ख़ास हो गया. आम पुरुषों की तरह मैं भी स्त्री मन को पुरुष के नज़रिए से ही देखता हूँ, प्रतिक्रिया देता हूँ. मेरी पत्नी सर्बानी बंगाल में पली-बढ़ी है. संवेदना और चेतना के स्तर पर काफ़ी जाग्रत अवस्था में रहती है. संवेदनशीलता में मैं उन्नीस तो वो बीस हैं, अपने अधिकारों के बोध में मुझसे इक्कीस, अधिकारों के लिए लड़ने के मामले में तो मुझसे कई गुणा बेहतर.
अपने यार-दोस्तों की आज़ादी के लिए उनके पतियों से लड़ना-भिड़ना भी बख़ूबी जानती हैं, तो मेरी बिसात ही क्या है. परिवार में सबसे प्यार भी बेइंतहा करती हैं, शिकायतों की पोटली भी तैयार रखती हैं, खुल कर लड़ती-झगड़ती हैं, लेकिन सबसे अच्छी बात प्रेम और स्नेह का धागा कस कर थामे रखती हैं. खुशनसीब हूँ, अपनी आज़ादी को बरकरार रखती हैं, मुझे आज़ाद रखती हैं. स्कूल-कॉलेज की मेरी तमाम महिला मित्र अब मुझसे कहीं ज़्यादा पक्की दोस्त सर्बानी की बन चुकी हैं.
बहरहाल, पुरुषों के तथाकथित संसार में स्त्री स्वतंत्रता, सामंती बंदिशों से मुक्ति, सामाजिक सम्मान की चेतना की जो आवाज़ ताराबाई शिंदे ने उठाई, वो मैंने सर्बानी तक पहुँचाई. ज़रिया बनी संवाद प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘स्त्री पुरुष तुलना’. मैंने आग्रह किया और सर्बानी ने ताराबाई शिंदे लिखित इस पुस्तक को पूरा पढ़ा, समझा और कुछ टिप्पणियाँ मुझे भी सुनाईं. दोहरी ख़ुशी है, पहली तो ये कि महिला दिवस का ये गिफ़्ट कुछ मायने में किफायती रहा और दूसरी खुशी कि इसी तरह आप पढ़तीं गईं तो किताबों की शिकायतें भी दूर होंगी, कोई हमें पलटता नहीं, हमसे बतियाता नहीं.
पशुपति शर्मा, 16 मार्च, 2022