” हां, वायलर को मैंने मारा, किसी और ने नहीं।” यही तो कहा था भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा जुब्बा सहनी ने और मुजफ्फरपुर के मीनापुर थाने के दारोगा एमएल वायलर हत्याकांड की सुनवाई कर रहे जज ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी थी। आज ही के दिन 11 मार्च 1944 को भागलपुर जिला जेल में जुब्बा सहनी को फांसी दे दी गई थी।
मुजफ्फरपुर जिले के मीनापुर प्रखंड का एक छोटा सा गांव है चैनपुर। 25-30 घर मल्लाह और मुस्लिम परिवारों वाला एक गांव । आधुनिक न्यूनतम मूलभूत सुविधाओं से वंचित इस गांव के अधिकांश परिवार भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं। जीविकोपार्जन के लिए मौसमी पलायन की बाध्यता। इसी गांव में 1906 मे लालजी सहनी के घर पैदा हुए थे जुब्बा सहनी। वे तीन भाइयों में मझले थे । बड़े भाई का नाम शिवनन्दन सहनी और छोटे का नाम था सुब्बा सहनी। जुब्बा सहनी खुद अविवाहित जबकि बड़े भाई शिवनन्दन सहनी की दो और सुब्बा सहनी की एक बेटी थी। 1942 का अंग्रेजों भारत छोडो आंदोलन की लहर से मीनापुर भी अछूता नहीं था। 11 अगस्त 1942 को पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराने के दौरान सात युवा शहीद हो चुके थे। मीनापुर थाने पर भी यहां के क्रांतिकारियों ने तिरंगा फहराने का संकल्प लिया था। 12 अगस्त को इसका प्रयास भी हुआ लेकिन प्रयास असफल रहा। अंग्रेजी हुकूमत को इस बात की जब जानकारी मिली तो उसने आंदोलनकारियों को सबक सिखाने का फैसला किया। 15 अगस्त 1942 को सीतामढ़ी से बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज मीनापुर के लिए भेजी गई। क्रांतिकारियों को जब इसकी सूचना मिली तो उन लोगों ने सीतामढी-मुजफ्फरपुर सड़क को रमपुर हरि गौव के पास काट कर आवागमन अवरुद्ध कर दिया। फिर हजारों की संख्या में सड़क पर रास्ता रोक कर खड़े हो गये। ब्रिटिश फौज पहुंची और बिना किसी चेतावनी के गोलियां चलाई जाने लगी।
इस गोली कांड में 5 लोग मौके पर शहीद हो गये। अंग्रेजी फौज की हिंसक कार्रवाई की खबर चारों तरफ फैल गई। तय हुआ कि 16 अगस्त को मीनापुर थाने पर तिरंगा फहरराया जाएगा। उस थाने में तब एम एल वायलर नामक एक अंग्रेज दारोगा तैनात था। उसने इस स्थिति से निबटने के लिए कुछ स्थानीय जमींदारों और छंटे हुए बदमाशों को थाने पर बुला लिया। 16 अगस्त 1942 के लगभग 2 बजे दिन में बड़ी संख्या में क्रांतिकारी थाने पर पहुंचने लगे। वे हर हाल में थाने पर तिरंगा फहराने को कृतसंकल्प थे। क्रांतिकारायों की बढ़ती भीड़ देख दारोगा वायलर ने अपनी पिस्तौल से दनादन गोलियां चलानी शुरू कर दीं। उसके गुर्गे भी क्रांतिकारियों को आगे बढ़ने से रोक रहे थे। थाने के सिपाही भी अपनी बंदूकों से गोलियां चला रहे थे। इस गोलीबारी में एक क्रांतिकारी जगन्नाथ सिंह समेत अन्य कई लोग घायल हो गये। भीड़ फिर भी आगे बढ़ती रही।
एक गोली बांगुर सहनी को लगी और वे जमीन पर गिर गये। कुछ देर के बाद उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया। इसके बाद उग्र भीड़ ने दारोगा वायलर और सिपाही गुगली सिंह की बंदूक छीन ली। भीड़ के उग्र तेवर को देख दारोगा बुरी तरह डर गया। वह भाग कर सनई के खेत में छुप गया। जुब्बा सहनी ने अकेले बांगुर सहनी की लाश को घर पहुंचाया और वहां से लौट कर अपने अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ दारोगा वायलर की खोज शुरू कर दी। गुप्त जानकारी के आधार पर उसी सनई के खेत से वायलर को पीटते हुए लाठी के सहारे टांग कर थाने लाया और थाने के उपस्कर एवं अभिलेखों को जमाकर उस पर वायलर को बांध कर रख दिया फिर मिट्टी तेल छिड़क कर उसे जिंदा जला दिया। इसके बाद वहां यूनियन जैक उतार कर तिरंगा फहराया गया। इस दौरान क्रांतिकारियों ने नेउरा-खेमाईपट्टी गांव के बीच सडक को काट दिया। बाढ़ का पानी तत्काल सड़क तोड़ कर बहने लगा। इससे मीनापुर और मुजफ्फरपुर के बीच सड़क सम्पर्क टूट गया। ऐसा करने से मुजफ्फरपुर से तत्काल अतिरिक्त फौज घटना स्थल पर नहीं पहुंच सकी। इसके बाद जुब्बा सहनी मुजफ्फरपुर शहर से गिरफ्तार कर लिए गये।
इस कांड में सैकड़ों क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाया गया। जुब्बा सहनी को भागलपुर जेल में रखा गया। मुकद्दमें की सुनवाई वहीं होने लगी। देश और खास कर मीनापुर की जनता क्रांतिकारियों की प्राण रक्षा को लेकर काफी चिंतित थी। जुब्बा सहनी यदि इस घटना में उनकी संलिप्त्ता जाहिर कर देते तो सबों की फांसी निश्चित थी । मगर नहीं, जुब्बा सहनी ने ऐसा कुछ नहीं किया। मुकद्दमें की सुनवाई के दौरान जज द्वारा वायलर की हत्या के मामलें में अन्य क्रांतिकारियों की संलिप्तता के बारे में पूछे जाने पर बड़ी निर्भीकता से उन्होंने कहा था’ हां, वायलर को मैंने मारा, किसी और ने नहीं। ‘ यह जानते हुए भी कि इस स्वीकारोक्ति की सजा फांसी से कम नहीं होगी, जुब्बा सहनी ने अपने साथियों के प्राण बचा लिए और खुद 11 मार्च 1944 को भागलपुर जेल में फांसी के फंदे को गले लगाया।