सियासी शिकंजे से किसान छूटें तो बदलेगी ज़िंदगी

सियासी शिकंजे से किसान छूटें तो बदलेगी ज़िंदगी

केदार सिरोही

आदिकाल से कृषि हमारे देश की अर्थव्यवथा की रीढ़ की हड्डी रही है। आज वही खुद को बचाने के लिए बदलाव तलाश रही है। देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने वाली कृषि का अर्थशास्त्र आज अपने आप में उलझा हुआ है। परिणाम स्वरुप किसान आत्महत्या कर रहा है। कर्ज के बोझ तले उसकी संपन्नता ख़त्म हो गई है। बुजुर्गों की जुबान से खेती और किसानों की मेहनत के कई किस्से और कहानियां सुनी है। कई इलाकों में किसानों ने बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया, फसल उगाई, पशुओं को पालना शुरू किया। मौसम से जंग करते हुए उम्मीद से बढकर उत्पादन किया। लेकिन किसान धीरे-धीरे आर्थिक नुकसान से टूटते चले गए। इसका कारण रहा कि किसान उत्पादन के लिए आजाद रहे, परन्तु बेचने और बाज़ार की आज़ादी उसके पास नहीं रही।

राजशाही और ब्रिटिश शासन  के दौरान खेती से वसूली ही आय का बड़ा स्रोत रहा।  अंग्रेज किसानों से 50 से 60 फ़ीसदी चुंगी या कर के माध्यम से लेते थे। ये किसानों का सबसे बड़ा आर्थिक शोषण था। किसानों ने खेती पर लगने वाले कर, चुंगी के खिलाफ लड़ाईयां लड़ीं क्योंकि उनको समझ में आ गया था कि यदि कर बढेगा तो लागत बढेगी। एक दिन किसान मर जाएगा, किसानी ख़त्म हो जायेगी। इसलिए आज़ादी के पहले किसान आन्दोलन होते रहे हैं।

जैसे-जैसे हम लोग आधुनिक विकास की ओर चले कृषि की हालत सब जगह ख़राब होती गई। पहले हमारे देश में कृषि इसलिए ठीक थी कि ग्रामीण ढांचा किसानों के फायदे मुताबिक तैयार किया गया था। उस समय सामान के बदले सामान ख़रीदा और बेचा जाता था। यदि किसी को जूते बनवाने हैं तो अनाज दूध, घी देना पड़ता था। इसी प्रकार खेती में मजदूरी, बीज और घरेलू आवश्यकता की पूर्ति सामान के बदले सामान से की जाती थी। किसानों को अपनी उपज का मूल्य तय करने का और सामने वाले की वस्तु का मोल-भाव करने का अवसर मिलता था। गाँव उद्योग की तरह थे। अधिकतर जीवन यापन की वस्तु का उत्पादन और विपणन गाँव में होता था। जिसके कारण उत्पादक और उपभोक्ता के बिच सीधा लेन-देन था। गांव की बाजार पर सीधी पकड़ थी और यही सबसे बड़ा फायदा था।

गांवों के इस मॉडल को अंग्रेजों ने आकर तोड़ दिया क्योंकि व्यवस्था को बाज़ार के नजरिये से देखा गया। अंग्रेज हमारे देश में विकास करने नहीं आये थे, उनको व्यवसाय करना था और लाभ कमाना था। परन्तु हमारे यहाँ की व्यवस्था में उनका व्यवसाय फल-फूल नहीं सकता था। उन्होंने हमारे ग्रामीण उद्योग को ख़त्म किया। सीधे बाजार को ख़त्म किया। किसानों से उद्योग के विपरीत फसल उगवाई, फिर उन्हीं फसलों को सस्ते में ख़रीदकर, बाहर देश भेजकर उसका प्रोसेस करवाकर हमें महंगे भाव में बेचा करते थे। इस प्रकार उनको दो लाभ थे, एक सस्ता खरीदना और महंगा बेचना। दूसरा उनके अपने लोगों को रोजगार देना।

नतीजतन, हमारे यहाँ उद्योग ख़त्म होते गए, बेरोजगारी बढती गई। इसी के परिणाम स्वरुप नील का आन्दोलन, चम्पारण, खेडा जैसे कई किसान आन्दोलन हुए। उस समय के लोग इनकी नीतियों को भांप गए थे। राजा और अंग्रेज किसानों से सिर्फ शोषण और ताकत के दम पर धन कमाना चाहते थे। इसी कारण हर जगह आजादी की लड़ाई की शुरुआत किसानों ने की थी। इस संघर्ष के बाद हम आजाद हो गए, लेकिन जैसे ही हम आजाद हुए देश के नेता देश को मजबूत करने की जगह पार्टियों को मजबूत करने में लग गए। अफसोस, आज देश के संविधान से बड़ा राजनातिक दलों का संविधान हो गया है।

किसानों की ज़िंदगी में बदलाव के लिए सुझाव

1. लघु किसान, बड़े किसानों के लिए बीज उत्पादन का कार्य करें। कम जमीन में ये काम अच्छे से हो सकता है। उनको उपज का भाव ज्यादा मिलेगा और बड़े किसान को बाजार से सस्ता बीज मिलेगा।

2. किसान स्वयं के बाज़ार खड़े करें। सीधे लेन-देन की प्रक्रिया बढ़ाएं।

3. किसानों के अधिकार वाली जगह को राजनीतिक पार्टियों से मुक्त कराया जाए। जैसे- मंडी, सहकारिता, पंचायती राज संस्थाएं।

आज़ादी के बाद भी किसानों ने अपनी मेहनत के बलबूते उत्पादन बढाया। लेकिन फिर वही समस्या लोगों को सस्ता अनाज मुहैया कराने और व्यापार को बढावा देने के नाम पर सरकारों ने किसानों को उपज का भाव नहीं दिया। परिणाम स्वरुप खेती धीरे-धीरे घाटे में जाती रही तो किसान खुद के खर्च को कम करता गया। किसान समाज की आखिरी सीढी पर खड़ा हो गया। यह सब इसलिए होता गया क्योंकि किसान आजादी के बाद राजनीतिक शोषण का शिकार होता गया। राजनातिक पार्टियों को सरकार बनाने के लिए गरीबों को सस्ता अनाज देना था। दूसरा, उद्योगपतियों को आर्थिक फायदा पहुंचाने के लिए कच्चा माल सस्ते में दिलवाना था। ताकि अमीर और गरीब दोनों खुश रहें, सरकार बनती रहे, चलती रहे।

कहने को राजनातिक दलों ने अपना दायरे बड़ा कर लिया और वो हमारे गाँव और घर तक पहुंच गए। ग्राम पंचायत, कोआपरेटिव, मंडी जैसे चुनाव में पार्टी प्रत्याशी उतरने लगे। जब पार्टी प्रत्याशी चुनाव जीतते हैं, तो उनका पहला धर्म पार्टी का विकास करना होता है। पार्टी की गाइडलाइन पर चलना होता है। इसलिए किसान की आवाज सिर्फ चुनाव के पहले उठती है, बाद में ख़त्म हो जाती है। धीरे-धीरे जो हमारे बीच के लोग थे, वो पार्टी के नेता होते चले गए। इसलिए शोषण के ख़िलाफ़ चंपारण या खेडा जैसे आन्दोलन की सोच भी ख़त्म हो गई। खेती डूबता जहाज बन गई। आज सारी ग्रामीण व्यवस्था और खेती पराश्रित हो गई है। खाद-बीज से लेकर उत्पादित चीजों की मार्केटिंग तक सभी पर आज कार्पोरेट ने कब्ज़ा कर लिया है। वो सब लोग फायदे में हैं, जो किसान के सामान का व्यापार कर रहे हैं, परन्तु किसान कर्ज में है।

अब देश में बदलाव की जरुरत है। देश की राजनीति में, देश की व्यवस्था में एक बदलाव चाहिए। हमें पुनः ग्राम आधारित व्यवसाय की तरफ जाना होगा। सामान के बदले सामान जैसी योजना बनानी होगी। स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण व्यवसाय को सहकारिता के सहारे बढाना होगा। खेती में सहकारिता को पूरी तरह प्रयोग में लाना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उसमें कई समस्या हैं। पर हम अलग-अलग खेती कर के भी लागत के संसाधन, खाद-बीज, मशीन और प्रोसेसिंग, मार्केटिंग में सहकारिता के माध्यम से उपभोक्ता तक सीधे संपर्क बना सकते हैं। गाँव में रोजगार और अपने उत्पाद की अच्छी कीमत मिल सकती है। पलायन रूक सकता है। यह सब आसानी से हो सकता है। जब किसान की ज़िंदगी में बदलाव आएगा तो गाँव बदलेगा, फिर शहर बदलेगा और एक दिन जैसा हम चाहते हैं वैसा बदलाव देश में आएगा।


केदार सिरोही। आम किसान यूनियन के अहम संगठनकर्ता। जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय से एग्रीकल्चर इकॉनॉमिक्स और फॉर्म मैनेजमेंट विषय से एमएससी। मध्यप्रदेश के हरदा के निवासी। इन दिनों इंदौर ठिकाना है।