धीरेंद्र पुंडीर
बौने नया हीरो गढ़ रहे हैं क्योंकि नायक या खलनायक के बिना कोई फ़िल्म नहीं होती। बौनों के नए हीरो डी के शिवकुमार हैं। खनन, क़ब्जे और डीलिंग सब में सिद्धहस्त हैं। किसी में कम नहीं है। मैं स्थानीय पत्रकारों को लेकर कभी टिप्पणी नहीं करता क्योंकि वो पानी में ऑक्सीजन से ज़्यादा कुछ और तलाश करते हैं। लेकिन खुद को नेशनल बताने वाले बौने ज़्यादा हास्यप्रद नज़र आते हैं जब वो इस तरह की कहानी चलाते हैं। यहाँ केंद्रीय नेता कांग्रेस के मौजूद थे। हर पल गुलामनबी और अशोक गहलोत के साथ बी के हरिप्रसाद और राज्य के प्रभारी वेणुगोपाल एक-एक बात पर गौर कर रहे थे। और सबसे बड़ी बात थी कि हालात भी कांग्रेस के पक्ष में शुरू से ही दिख रहे थे।
कर्नाटक की विश्वासमत कथा
बीजेपी के मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास ने कांग्रेस का काम आसान बना दिया। पार्टी की जीत का आंकड़ा घटने लगा था लेकिन पार्टी जश्न में थी और कोई भी श्रेय लूटने में पीछे नहीं रहना चाहता था। कैमरे के सामने आने की होड़ मची थी और जो बैकडोर के खिलाड़ी थे वो मस्त होकर घूम रहे थे। रिजल्ट के दिन तीन-तीन बार प्रेस को संबोधित कर रहे थे, केंद्र के भेजे गए नेता। केंद्र से भेजे गए बीजेपी के कर्नाटक प्रभारी मुरलीधर राव और कांग्रेस के वेणुगोपाल में ज़मीन आसमान का अंतर था। वेणुगोपाल बेहद विनम्र और ज़मीनी दिख रहे थे तो मुरलीधर राव अश्वमेध के योद्धा समझ कर घमंड से परिपूरित थे। वैसे भी वेणुगोपाल ने शायद एक आध वोट कांग्रेस को दिलाने में मदद की भी होगी तो दूसरी और राव साहब से आधा वोट खींचना भी संभव नहीं था।
मुझे लगता है कि वोटिंग के बाद यह लड़ाई सिद्धारमैया और मोदी से हटकर कांग्रेस और बीजेपी दोनों के केंद्रीय नेताओं पर आकर टिक गई थी। और सिद्धारमैया और येदियुरुप्पा को केंद्र में रखकर बनी रणनीति में सिद्धारमैया ने अपने ईगो को ज़मीन पर लाने में देर नहीं की और सबसे पहले यह भांप लिया कि वो ज़मीन पर लग चुके हैं इसीलिए पहले दलित के लिए सीट देने की बात और फिर दोनों निर्दलीय को रिजल्ट के बीच में ही पकड़ने का काम किया। उसके बाद भी कुमारस्वामी के लिये अपनी नफ़रत को विरक्ति में और फिर आसक्ति में बदलने में देर नहीं लगाई।
उधर, बीजेपी फरिश्ता की बीन बजाने वाले अमित शाह के जादू पर आकर रुकी हुई थी। येदि ने अपने घमंड को और आसमान पर चढ़ा लिया था। रिजल्ट के बीच आफिस में घुसते वक़्त लिफ्टमैन को डांटना और माला देने वाले समर्थकों को हड़काते देख, मुझे आश्चर्य ही रहा था कि क्या यह जननेता की विनम्रता है। मैं लगातार एक बात महसूस कर रहा था कि क्या येदि से दिल्ली के नेता सहज रूप से बात कर पा रहे होंगे। क्या दिल्ली से आये हुए नेता यह कह पा रहे होंगे कि अगर हम निर्दलीय नहीं पकड़ पाये तो पार्टियों से 13 विधायकों को कैसे तोड़ पाएंगे। और येदि के इस एटीट्यूड ने सहज संवाद को दूभर कर दिया।
पार्टी सिर्फ येदियुरप्पा की बात पर यकीन कर रही थी। जे पी नड्डा या धर्मेंद्र प्रधान को कोष को छूने की नौबत भी नहीं आई। अमित शाह अगर किसी के टच में थे तो सिर्फ येदि और स्थानीय नेताओं का फीड बैक किस तरह जा रहा था यह साफ नहीं था। मैं उन बौने पत्रकारों की बात नहीं कर रहा हूँ जो धीरे से आकर यकीन दिलाने में लगे थे कि साहब सब कुछ इंतजाम हो गया। अरे साहब चेहरे देखिये कितना आत्मविश्वास है। मैं बौनों के चेहरे देखने लगता कि यार उनका तो पता नहीं लेकिन नमक का कर्ज अदा करते हुए तुम्हारे चेहरे तो चमक ही रहे हैं।
फिर एक कहानी ऑपरेशन लोटस की चली। बिना जाने शुरू हुआ ऑपरेशन कमल पार्ट 2। यह सोचने की फुरसत नहीं थी कि उस वक़्त तीन चाहिए थे और 6 निर्दलीय जीते हुए थे जिसमें से 5 ने सरकार बना दी थी । लेकिन इस बार दो ही थे और वो हाथ से निकल चुके थे। बीजेपी के स्थानीय नेताओं का घमंड भी आसमान पर था। उनको लग रहा था कि बस बाकि पार्टियां तो कंगालों से भरी हैं, पैसा वही बांट सकते हैं। यह सोचने की फुरसत ही नहीं थी कि रिसोर्ट में सिर्फ स्पा ही नहीं नोट बंट रहे होंगे। बीजेपी को तोड़ने के लिये देने थे और कांग्रेस को रोकने के लिये।
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धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही आपकी अपनी विशिष्ट पहचान है।
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