दीपावली की अगली सुबह गोवर्धन पूजा की जाती है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है । शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की ।
जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा तब गोकुल वासियों ने 56 भोग बनाकर श्री कृष्ण को भोग लगाया था। इससे प्रसन्न होकर श्री कृष्ण ने हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।
गोवर्धन पूजा के संबंध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है । देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था । इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि विष्णु के अवतार हैं ने एक लीला रची । श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में देखा की सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे है । श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मईया यशोदा से प्रश्न किया ” मईया ये आप लोग किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं ? ” कृष्ण की बातें सुनकर मैया बोली लल्ला हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं । मैया के ऐसा कहने पर श्री कृष्ण बोलें ” मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं ? ” मैईया ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की पैदावार होती है और हमारी गायों को चारा मिलता है । यह सुनकर भगवान श्री कृष्ण बोलें “हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गायें वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं । अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए । “
लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के बदले गोवर्धन पर्वत की पूजा की । देवराज इन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी । तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्धन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे़ समेत शरण लेने के लिए बुलाया । इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी । इन्द्र लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहें तब उन्हें एहसास हुआ कि उनका मुकाबला करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतांत कह सुनाया । ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं । ब्रह्मा जी के मुख से यह सुनकर इन्द्र अत्यंत लज्जित हुए और श्री कृष्ण से क्षमा याचना की । श्रीकृष्ण ने सातवें दिन गोवर्धन पर्वत को नीचे रखकर ब्रजवासियों को आज्ञा दी कि अब प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजाकर अन्नकूट का पर्व उल्लास के साथ मनाओ । इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्धन पूजा की जाने लगी । बृजवासी इस दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा करते हैं । गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है । गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है ।
गाय, बैल को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है तथा प्रदक्षिणा की जाती है। गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा करते है तथा परिक्रमा करते हैं।