ब्रह्मानन्द ठाकुर
यह बर्ष गीतों के राजकुमार , कवि गोपाल सिंह नेपाली की जयंती का 112 वां बर्ष है। उनका जन्म अगस्त 19 11 को पश्चिम चम्पारण जिले के कालीबाग दरबार में हुआ था। वे एक निर्लिप्त कवि थे। कभी नकाब नहीं पहना।अहंकार और प्रपंचों से दूर उनका व्यक्तित्व अंदर और बाहर से एक समान रहा। यही कारण था कि उन्होंने जहां कहीं भी सामाजिक और राजनीतिक विकृतियां देखीं, ,अपनी कलम से उसकी जमकर खबर ली। नेपाली की दृष्टि में साहित्य साधना का उद्देश्य सत्ता की सीढ़ियां चढ़ना नहीं था।वे खेतों – खदानों में मरने -खपने वाली जनता के कवि थे। राष्ट्रीयता की भावना उनके रग-रग में व्याप्त थी। वे प्राकृतिक सौन्दर्य के अद्भुत चितेरे थे। नेपाली के समकालीन कुछ रचनाकार जहां अपनी कलम की बदौलत सत्ता की सीढ़ियां चढ़ रहे थे,वहीं कवि गोपाल सिंह नेपाली कलम की स्वाधीनता का संदेश दे रहे थे। जनवरी 1963 में उन्होंने लिखा ,’ मेरा धन है स्वाधीन कलमराजा बैठे सिंहासन पर,यह ताजों पर आसीन कलमजिसने तलवार शिवा को दीरोशनी उधार दिवा को दीपतवार थमा दी लहरों कोखंजर की धार हवा को दीअग -जग के उसी विधाता ने,कर दी मेरे अधीन कलम ‘नेपाली जी के समकालीन कुछ कवि अपने सत्ता- समर्थित राग और कलम की बदौलत ऐश्वर्य की सीढियां चढ़ रहे थे, लेकिन कवि नेपाली को अपनी कलम की स्वतंत्रता की कीमत पर वैभव कभी भी स्वीकार्य नहीं रहा।उसने मुफलिसी जरूर कबूल की लेकिन मरते दम तक कलम की स्वाधीनता बचाए रखी। तब उन्होंने लिखा ‘तुझ-सा लहरों में बह लेतातो मैं भी सत्ता गह लेताईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेताहर दिल पर झुकती चली मगर,आंसू वाली नमकीन कलममेरा धन है स्वाधीन कलम।’भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उद्देश्य देश की जनता को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक समानता का अवसर उपलब्ध कराना था। आजादी मिलने के बाद कवि नेपाली ने महसूस किया कि आर्थिक असमानता की खाई और चौड़ी हुई है,शोषण- उत्पीड़न और अधिक बढ़ा है।भला यह सब देख कर कवि चुप कैसे रह सकता था? तब कवि ने लिखा ‘रोटी न किसी को,किसी को मोतियों की ढेरभगवान तेरे राज में अंधेरे है अंधेर ‘ (नजराना)इसी तरह अपनी ‘चांदनी ‘ शीर्षक कविता में उन्होंने लिखा’चंद्रकिरण में महलों की दीवार चमकती रहती है,झोपड़ियों से चांदनी लिपट भर रात सिसकती रहती है ‘यदि दूर कुटी के घेरे से आजादी की परिभाषा है, गणतंत्र कहो या एकतंत्र— यह सारा तंत्र तमाशा है।’यह निर्विवाद तथ्य है कि पूंजीवादी व्यवस्था ने आज समाजको शोषक और शोषित दो वर्ग में बांट दिया है। इस वर्ग विभाजित समाज में सदियों से शोषक वर्ग का शोषण और उत्पीड़न बदस्तूर जारी है। आर्थिक समानता लाए बगैर इस वर्गीय शोषण का खात्मा नहीं किया जा सकता। सोवियत रूस में बोल्शेविक क्रांति ने वहां वर्गीय शोषण को समाप्त कर पूंजीवादी समाज व्यवस्था को ध्वस्त कर समाजवादी समाज व्यवस्था कायम किया था।ऐसी स्थिति में रूसी क्रांति से प्रभावित होकर भारत के किसानों और मजदूरों ने वर्ग संघर्ष की अनिवार्यता को महसूस किया और पहली बार तेलांगना में भूमि संघर्ष की शुरुआत हुई। पूरे तेलांगना मे आंदोलन शुरू हो गया। तेलांगना के रक्तरंजित आंदोलन को देख प्रसिद्ध गांधीवादी आचार्य विनोबा भावे तेलांगना पहुंचे और वहां चल रहे आंदोलन को शांत करने के लिए भूदान यज्ञ की शुरुआत कर दी।उन्होंने जमींदार किसानों और भूमिहीनों के बीच सामंजस्य बैठाने के लिए बड़े भू स्वामियों से जमीन दान में लेकर भूमिहीनों के बीच बांटने का अभियान चलाया। वे जमींदारों से कहते थे,भूमिहीन तुम्हारे छठे पुत्र हैं इसलिए अपनी कुल जमीन का छठा हिस्सा तुम इनके बीच बांट दो। दूसरी ओर वे भूमिहीन मजदूरों को समझाते थे कि भू स्वामी तुम्हारे पिता तुल्य हैं।इनसे जमीन जबरन छीनों नहीं ,मांग लो। यही पृष्ठभूमि थी भूदान आंदोलन की। पहला भूदान यज्ञ 18 अप्रैल ,1951 को तेलांगना के नाथमपल्ली गांव में हुआ। राष्ट्रकवि दिनकर ने विनोवा भावे के इस अभियान की प्रशंसा करते हुए भू-दान शीर्षक से एक कविता लिखी जो उनके नील कुसुम संग्रह में पढा जा सकता है। इसमें उन्होंने भूस्वामियों को समझाते हुए लिखा है, ‘कृष्णदूत बनकर आया है ,संधि करो सम्राटमच जाएगा प्रलय कहीं वामन हो गया विराट।’जाहिर है,वामन शब्दका प्रयोग भूमिहीन किसानों ,मजदूरों के लिए ही किया गया है।तो यह था भूमिहीनों एवं जमींदारों के बीच छिड़े संघर्ष को रोकने का उपाय !विनोवा के भूदान यज्ञ और दिनकर की इससे सम्बंधित कविता के जवाब में कवि गोपाल सिंह नेपाली ने भूमिहीन किसान -मजदूरों के पक्ष में खड़ा होते हुए विनोवा भावे से प्रश्न करते हुए अपनी कविता ‘भूदान यज्ञ के प्रति’ में लिखा ,’ किसने कहा कि भिक्षा मांग करोड़ों के लिएकिसने कहा कि भीख है मरहम जग को फोड़ों के लिए राष्ट्र पले अबतक चन्दों से लाज बचे क्या पैबंदों से मिटे न दुखड़ा इन धंधों से नया वसंत बुला ला फिर तू, सौरभ सुमन सुमन से मांग।’स्पष्ट है कि गोपाल सिंह नेपाली एक क्रांतिदर्शी कवि थे उनका मानना था कि एकमात्र व्यवस्था परिवर्तन से ही समतामूलक समाज का निर्माण सम्भव है और व्यवस्था परिवर्तन लिए क्रांति के सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं।