विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति से दूर होता इंसान

विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति से दूर होता इंसान

  ब्रह्मानंद ठाकुर

गांधी और व्यावहारिक अराजकवाद सिरीज के अन्तर्गत  अभी तक आप विभिन्न अराजकवादी  चिंतकों के विचारों   से अवगत हुए।  महात्मा गांधी के व्यवहारिक अराजकवाद पर भी उनके विचारों की चर्चा आलेख में की जा चुकी है।  इसी क्रम में यह भी कहा जा चुका है कि वर्तमान औद्योगिक सभ्यता ने किस तरह से हजारों वर्ष के  विकास के क्रम को नष्ट करने का काम किया है ? अब तक का इतिहास बताता है कि इस औद्योगिक सभ्यता के खिलाफ हुई सभी क्रांतियां हिंसात्मक संस्कृति की शिकार बन कर हल्का फेरबदल कर फिर उसी व्यवस्था का संचालन करने लगी। जरूरत है,  इस विनाशकारी औद्योगिक सभ्यता के खूनी पंजे से  दुनिया को मुक्त कर  उसे प्रकृति के  साहचर्प  के  सरल जीलन की ओर ले जाने की।प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक सच्चिदानन्द सिन्हा ने अपनी पुस्तक ‘ गांधी और व्यवहारिक अराजकवाद ‘ की इस कड़ी में महात्मा गांधी के  इन्हीं विचारों  की चर्चा ।

पिछली त्रासदियों के संदर्भ में यह प्रश्न उठता है कि क्या वैसी स्थितियां सम्भव है जब आज की जीवन पद्धति को छोड़ प्रकृति के साहचर्य की नयी जीवन पद्धति विकसित हो सके ?  जवाब है हां । यह बात कुछ विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वर्तमान विकास की सीमाएं कुछ इस तरह उभर रही है जो हमें मजबूरन प्रकृति पर विजय पाने की आसुरी आकांक्षा को छोड़ प्रकृति के साहचर्य के सरल जीवन की ओर मुड़ने को मजबूर करती है। इसके लिए हमें मशीनीकरण के मूल स्वभाव को समझना होगा। इस विषय को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए औजार और मशीन के चरित्र और औद्योगिक क्रांति के काल में  हुए उनके बदलाव के सम्बंध में स्वयं कार्लमार्क्स के विचार जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘पूंजी’ के प्रथम भाग में प्रस्तुत किया है, काफी सहायक है।

मार्क्स पहले औजार (टूल )और मशीन का फर्क   बताते हैं। वे कहते हैं कि मशीन वह प्रविधि है  जो कार्यशील होने पर औजार ( टूल ) से काम कराता है जो पहले श्रमिक द्वारा उन्हीं औजारों से किया जाता था। इसमें जहां पहले मनुष्य चालक (मोटिव पावर ) का काम करता था वहां उसकी जगह अब मशीन है जो चालक की भूमिका अदा करती है। इस पूरी प्रक्रिया के तीन भाग हैं, चालक, उर्जा, संचालक (ट्रांसमीटर) और औजार (टूल )। ऐतिहासिक दृष्टि से चालक भी घोड़ा, जलधारा या वायु हुआ करता था।अब यह मूलत:  कोयला, खनिज तेल या किसी स्रोत से उपलब्ध बिजली बन गया है। हस्तकला को छोड़ कर प्राय: दूसरे सभी क्षेत्रों में मनुष्य चालक की भूमिका से बाहर हो गया है और घोड़े, ऊंट, बैल आदि भी चालक के रूप में हाशिए पर डाल दिए गये हैं। चूंकि मनुष्य के पूर्ण नियंत्रण में रहने वाले स्रोत तेल,कोयला आदि ही है जिनका जल,थल और वायु तीनों में ऐच्छिक इस्तेमाल हो सकता है, पिछली शताब्दी में इन्हीं स्रोतों की तलाश और इनका कारखानों, बिजली घरों  और वाहनों के लिए अनियंत्रित उपयोग होता रहा है। लेकिन उर्जा के इन स्रोतों की तलाश में इस बात को सदा नजरअंदाज किया जाता रहा है कि ये सारे के सारे जीवाश्म ईंधन कभी के गड़े खजाने हैं, जिन्हें आज न कल खत्म होना  है। इसके बाबजूद तेज विकास और भारी मुनाफे  की इच्छा ने इन ईंधनों के उपयोग को सीमित करने  की बजाय लगातार बढ़ाया ही है। पर एक दूसरे रूप में इनकी सीमाएं उभरने लगी है।

 हमेशा ऐसा होता है कि जीवाश्म ईंधन या किसी खनिज की तलाश में पहले इन्हें आसानी से उपलब्ध कराने वाले स्रोतों को विकसित किया जाता है। बाद में जब ये स्रोत विरल हो जाते हैं तब उन स्रोतों को विकसित किया जाता है जिनसे इन खनिजों को पाना ज्यादा कठिन या खर्चीला होता है। स्वाभाविक है कि इनसे पाए जाने वाले ईंधन या खनिज अधिक महंगे सिद्ध होंगे। थोड़ा विचार करने से लगता है कि इधर लगातार बढ़ रही महंगाई के पीछे यह एक मूल कारण है। कोयला,तेल आदि स्रोतों पर उर्जा के लिए हमारी निर्भरता और इसका लगातार महंगा होते जाना इसके मूल में है। कोयला या एथनाल के माध्यम से जैविक पदार्थों का ईंधन-गैस या तेल में परिवर्तित किया जाना संकेत है उस दिशा का,जिसमें उर्जा के स्रोतों के सिंकुडन से महंगाई और अंतत:  अभाव बढ़ता जा रहा है। प्राय: तेल के महंगा होने के पीछे ओपेक के देश कहीं न कहीं तेल की उपलब्धता में सिंकुडन को ही प्रतिबिम्बित करते हैं। आगे जैसे जैसे उर्जा के स्रोत विरल होते जाएंगे ,महंगाई भी बढेगी।

अर्थ जगत का  वह रुझान जिसे अर्थशास्त्री ‘ स्टैगफ्लेशन’ कहते हैं यानि महंगाई और मंदी का साथ-साथ होना, इसी परिप्रेक्ष्य में  समझा जा सकता है। आम तौर पर माना जाता है कि आर्थिक मंदी के काल में वस्तुओं की कीमतें गिरेंगी क्योंकि बेरोजगारी से लोगों की क्रय शक्ति  कम होने से उनके खरीददार घटेंगे। लेकिन स्टैगफ्लेशन में मंदी के साथ-साथ महंगाई भी बढ़ती है। दरअसल यह स्थिति लगातार गहराते उर्जा संकट का संकेत हैं। लोगों की क्रय शक्ति चाहे जितना कम हो, अगर वस्तुओं के उत्पादन में लगने वाली उर्जा की कीमत लगातार बढ़ेगी तो इससे उत्पादों की कीमत भी बढ़ेगी ही। विशेषकर , अगर  खेती तूल से चलने वाले यंत्रों पर निर्भर है तो कृषि उत्पाद भी महंगे होंगे।

ब्रह्मानंद ठाकुर।बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।

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