कुमार नरेंद्र सिंह
आज भी भोजपुर के उज्जैनिया राजपूतों के गांव लहठान में एक बहुत बड़ा तालाब है, जिसके बारे में वहां के लोग बताते हैं कि वह पोखरा कुंअर सिंह ने खोदवाया था और इसका उद्देश्य था उस गांव के सभी उज्जैनिया राजपूतों को मार कर उसी तालाब में भसा देना। वास्तव में कुंअर सिंह की असली ताकत शाहाबाद के आम जन थे, जो उनकी ललकार पर अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हो गए थे। प्रसिद्ध इतिहासकार, अरविंद नारायण दास ने शायद इसीलिए कुंअर सिंह का आकलन प्रथम किसान नेता के रूप में किया है। स्वयं अंग्रेज अधिकारियों का कहना है कि कुंअर सिंह की असली ताकत जनता थी, जो उन्हें दिलोजान से चाहती थी।
किस्सा-ए-कुंअर – दो
दानापुर के सिपाहियों सहित अन्य जमींदारों को अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ खड़ा करने में कुंअर सिंह की भूमिका का यह भी एक प्रमाण है कि 17 जुलाई यानी बगावत के एक सप्ताह पूर्व आरा के जज ने अपने टेबल पर एक बेनामी पत्र पड़ा पाया, जिसमें कहा गया था कि गया के एक नामी जमींदार अली करीम, जो कंपनी सरकार के खिलाफ गुप्त पत्राचार के मामले में शामिल थे, हाल ही में जगदीशपुर आए थे। इस पत्र में यह भी लिखा था कि दानापुर के सिपाही 25 जुलाई को बगावत कर सकते हैं। आगे यह भी लिखा था कि यदि आरा में कुंअर सिंह के एजेंट काली प्रसाद के घर की तलाशी ली जाए तो आपत्तिजनक ठोस सुबूत मिल सकते हैं। काली प्रसाद के घर की तलाशी ली गई लेकिन वहां कुंअर सिंह के षड्यंत्र में शामिल होने के मामले में कोई सुबूत नहीं मिला। अलबत्ता, बगावत की तिथि जरूर सही साबित हुई।
यूं तो कुंअर सिंह शाहाबाद के सबसे बड़े जमींदार थे, लेकिन उनकी जमींदारी की स्थिति डावांडोल थी। इस्टेट आर्थिक बोझ से दबा हुआ था। उनके ऊपर उस समय 20 लाख रुपए का कर्ज था। सेना और सरजाम भी उनके पास कम थे। अगर अंग्रेज इतिहासकारों की ही बात करें तो कुंअर सिंह के पास 1000-2000 से ज्यादा सैनिक कभी नहीं रहे। इन तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी तो सिर्फ इसलिए कि स्थानीय जनता का उन्हें जबर्दस्त समर्थन हासिल था। अगर कहा जाए कि शाहाबाद के किसानों और कारीगरों के बल पर ही उन्होंने 80 साल की उम्र में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए तो कोई गलत नहीं होगा। जनता के साथ उनके जुड़ाव को अनेक अंग्रेज अफसरों ने अपने सरकारी और वैयक्तिक पत्रों में रेखांकित किया है। आमजन के साथ उनके जुड़ाव का आलम यह था कि जब आरा जेल के कैदी पीतल के लोटे के बदले मिट्टी के पात्र दिए जाने के खिलाफ उग्र हो चले तो उन्हें शांत करने के लिए पटना के कमीश्नर टेलर ने कुंअर सिंह को जेल बुलाया था। कुंअर सिंह के कहने पर उस वक्त तो कैदी मान गए लेकिन उनके वहां से जाते ही फिर उग्र रूप अख्तियार कर लिया।
कुंअर सिंह को मालूम थी विद्रोह की तारीख
दानापुर के सिपाहियों ने तो 25 जुलाई, 1857 को विद्रोह किया था लेकिन उससे पहले ही कुंअर सिंह को ज्ञात हो चुका था कि दानापुर के सिपाही विद्रोह करने वाले हैं। एक सिपाही ने चंद दिनों पहले ही बता दिया था कि सिपाहियों के बीच हल्दी बंट चुकी है और अब विद्रोह कभी भी हो सकता है। वैसे कुंअर सिंह युद्ध की तैयारी में पहले से ही जुट गए थे। रंगरूटों की भर्ती के साथ-साथ उनको ट्रेनिंग भी दी जा रही थी। उन्होंने अपनी सेना को पांच कमांड में विभाजित कर रखा था, जिनके नाम थे-राणा कमान, शिवा कमान, टीपू कमान, बजरंगी कमान और चंडी कमान। सेनापति हरेकृष्ण को बनाया गया था। इनकी पदवी थी-सलारे जंग।
इसी तरह विभिन्न ब्रिगेडों के नाम स्थानीय गांव के नाम पर रखे गए थे। उदाहरण के लिए शाहपुर थाना के सहजवली गांव के निवासी देवी ओझा को कारीसाथ डिवीजन की कमान सौंपी गई। बिहिया डिवीजन का कमांडर गया जिले के खमदनी गांव के वीर जीवधन सिंह को बनाया गया था। इसी तरह चौगाईं डिवीजन के कमांडर शाहपुर के रणजीत अहीर थे। उसके अलावा अनेक गांवों के वीर अपनी छोटी-छोटी सैनिक टुकड़ियां लेकर कुंअर सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में ईंट से ईंट बजाने को तैयार थे। सासाराम के बड्डी गांव के चौहान राजपूत गाजीपुर जिले के मेनदई गांव के जमींदार जयनाथ, हेतमपुर के हरि सिंह, चातर के भंजन सिंह, बबुरा के रामेश्वर, बलुआं के तिलक सिंह, नवादा गांव के वीर द्वारिका, डेढ़गाईं के रामनारायण, बेनी छपरा के सुबेदार रामधुन सिंह, सुबेदार देवकी दुबे, गाजीपुर के रणबहादुर सिंह, आयर गांव के शोभा सिंह औऱ उनके पुत्र बाबू महादेव सिंह, दिलीपपुर के भोला बाबू के चार पुत्र, लक्ष्मी सिंह, काशी सिंह, आनंद सिंह राधे सिंह, करबासिन गांव के साहबजादा सिंह, उगना गांव के रूपनारायण, कवंरा गांव के शिवपरसरन, डिलियां के श्यामबिहारी, झउवां के हरसु राय, गहमर के मेघन राय, जमानियां के इब्राहिम खां, पटना के डुमरी गांव के हुसैन मियां आदि कुंअर सिंह की अगुआई में ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ ईंट से ईंट बजाने को तैयार थे।
दानापुर की सातवीं, आठवीं औऱ चालीसवीं पलटन ने 25 जुलाई को विद्रोह किया औऱ वे कुंअर सिंह से नेतृत्व की प्रत्याशा में आरा शहर को कूच कर चले। कुंअर सिंह ने उचित ही उनका नेतृत्व संभाला। देखते ही देखते कुंअर सिंह की अगुआई में विद्रोहियों ने आरा शहर को अपने कब्जे में ले लिया। विद्रोहियों ने आरा के सरकारी खजाने से 85,000 रुपए लूट लिए औऱ जेल तोड़कर सभी कैदियों को आजाद करा लिया। कुंअर सिंह के मन में धर्मनिरपेक्षता का आग्रह कितना प्रबल था, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि कब्जे के बाद उन्होंने आरा शहर की कमान शेख मोहम्मद याहिया औऱ शेख अफजल को सौंपी न कि किसी हिंदू को। अंग्रेजों को इंजीनियर ब्वॉयल के घर, जो बाद में आरा हउस के नाम से मशहूर हुआ, में जान बचाने के लिए छिपना पड़ा। आरा को मुक्त कराने के लिए कैप्टन डनवर दानापुर से 500 सैनिकों की एक फौज लेकर आरा रवाना हुआ। जब अंग्रेजी फौज आरा के नजदीक कायमनगर पहुंची तो कुंअर सिंह के सैनिकों ने उन पर हमला बोल दिया। जबर्दस्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में डनवर सहित उसके लगभग चार सौ सैनिक मारे गए और कुंअर सिंह की विजय हुई।
उधर अंग्रेजों की गोलंदाजी सेना का सेनापति कैप्टन आयर कलकत्ता से इलाहाबाद जा रहा था कि बक्सर में उसे खबर मिली कि कुंअर सिंह के नेतृत्व में विद्रोहियों ने आऱा पर कब्जा कर लिया है। बस क्या था, वह वहीं से वापस मुड़ गया। उसके पास एक बड़ी फौज के अलावा तोपें भी थीं। गजराजगंज में कुंअर सिंह और अंग्रेजी फौज के बीच जमकर लड़ाई हुई। कुंअर सिंह ने सावधानी बरतते हुए मोर्चा छोड़ दिया, किसी और जगह मोर्चा जमाने के लिए। यह नया मोर्चा लगा बीबीगंज में। इस लड़ाई में भी कुंअर सिंह को नाकामी मिली। कैप्टन आयर ने विजयी होकर आरा शहर में प्रवेश किया और आरा फिर से अंग्रेजों के हाथ में चला गया। इसके बाद आयर ने एक बड़ी फौज लेकर जगदीशपुर पर हमला किया लेकिन तब तक कुंअर सिंह वहां से निकल चुके थे। आयर ने कुंअर सिंह के गढ़ को तोपों से ढहा दिया और आग लगा दी। कुंअर सिंह ने कुछ दिनों पहले ही जगदीशपुर में एक सुंदर शिवमंदिर बनवाया था। आयर ने इस मंदिर को भी नहीं बख्शा और उसे भी तोपों से ढहा दिया और उसके पुजारी को मार डाला। इसके बाद आरा शहर पर फिर से अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
(किस्सा जारी, अगली कड़ी जल्द)
कुमार नरेंद्र सिंह। बिहार के आरा जिले के निवासी। पटना विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली से उच्च शिक्षा हासिल की। आप पिछले 3 दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। जातिवाद और भारत की जाति व्यवस्था पर बेहतरीन रिसर्च।
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