विभावरी
फिल्म थी 1978 में बनी मुज़फ्फर अली की ‘गमन’| रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करती युवा पीढ़ी और शहर की तमाम चकाचौंध के बीच अपनी ज़िंदगी को बचा पाने की उसकी जद्दोजहद! एक ऐसी कशमकश में फंसा युवा जो न तो वापस घर जा सकता है (क्योंकि वहाँ रोजगार नहीं है) और न ही इस शहर में बना रह सकता है| सर छुपाने की जगह तक नहीं देता यह शहर! फिर भी यहीं बने रहने की मजबूरी!
…और वह दृश्य जब बीस साल से बम्बई में टैक्सी चालक रहा यशोधरा का पिता– जो गरीबी और तकलीफों के बीच लगभग पागल हो चुका है – पेट्रोल डाल समंदर को जला देना चाहता है| क्योंकि वही है जिसने उसे तबाह किया! यह दृश्य अपनी प्रतीकात्मकता में कहीं गहरे असर करता है| आपके ज़ेहन में अटका रह जाता है|
पूरी फिल्म एक तनाव पैदा करती है| बेरोजगारी का तनाव! अपनों से दूरी का तनाव! रिश्तों में छल-कपट का तनाव! सामंती जकड़न और पूँजीवादी पृष्ठभूमि की निर्मिति के बीच का तनाव! और इन सबके बीच हरी देवी मिश्रा की आवाज़ में गूंजता गीत ‘आजा सांवरिया तोहे गरवा लगा लूं…’ इस पूरे परिदृश्य के तनाव को और गहरा कर जाता है। गुलाम का इंतज़ार करती उसकी पत्नी खैरुन। स्मिता पाटिल की अदाकारी का उत्स, उनकी आँखों से छलकते इंतज़ार भर में दिख जाता है| गुलाम के रूप में फारूख शेख अपने अभिनय से पूरी फिल्म के कथ्य को जीवित करते हैं।
इटैलियन नवयथार्थवादी सिनेमा से प्रभावित लोकेशन शूटिंग, नॉन प्रोफेशनल एक्टर्स की बहुलता, गरीबी-बेरोजगारी जैसी समस्याओं के सूत्र इस फिल्म को एक तरफ राजनैतिक चेतना से लैस बनाते हैं तो दूसरी तरफ शहरयार के गीत जयदेव के संगीत के साथ मिलकर एक अलग ही प्रभाव रचते हैं| गौरतलब है कि इस फिल्म के म्यूज़िक के लिए जयदेव को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया| और ‘आप की याद आती रही’ गीत के लिए छाया गांगुली को बेस्ट सिंगर का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला| कुल मिलाकर कहूँ तो इस फिल्म के प्रभाव से मुक्त होने में समय लगता है।
विभावरी। गोरखपुर, उत्तरप्रदेश की मूल निवासी। इन दिनों ग्रेटरनोएडा में प्रवास। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से एमफिल, पीएचडी। गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी में अध्ययन-अध्यापन से जुड़ी हैं।