पिछले 9 दिनों से हर तरफ दुर्गा पूजा की धूम रही । क्या शहर क्या गांव हर तरफ आलीशान पंडाल हर किसी का मन मोहने के लिए काफी हैं । शांति स्वरूपा की पूजा के लिए बने पंडालों में कान फोड़ू लाउस्पीकर लोगों की शांति भंग करने में मानों गर्व महसूस करते हों । आस्था के लिए होने वाली पूजा पर आडंबर कब हावी हो गया पता ही नहीं चला । ऐसा लगने लगा है आज आस्था भी बाजार भरोसे हो गई है । इन्हीं सब चिंताओं को लेकर परसन कक्का जब सवाल उठाया कि दुर्गा पूजा को दशइयां क्यूं कहा जा रहा है तो घोंचू भाई ने विस्तार से समझाया ।
घोंचू उवाच 16
परसन कक्का दुर्गा पूजा को अबहियो दशईंए कहते हैं। कारण कि लड़िकारिए में उनके मन में ई बात बइठा दिया गया था कि दशईं मे खूब जादू-टोना का तमाशा होता है। आसीन ईंजोरिया के परिबा तिथि से लेकर नौमी तक गांव-देहात का ओझा-गुनी अप्पन जादू-टोना को भिन्न-भिन्न तरीका से खूब पक्का करता है । बड़का-बड़का ओझा कारू-कमछेया जाकर जादू सिखता है और जब लउट कर घरे आता है तब ऊ पूरा सिद्ध मान लिया जाता है। परसन कक्का को खूब इयाद है कि जब ऊ अबोध लड़िका थे त उनकी दादी दशई शुरू होते ही उनको करिया डांरा पेन्हा कर उसमें लहसुन लटका देती थी और कपार में करिखा लगा देती थी कि उनपर किसी की नजर न लगे। घर के एकलौता जो थे। भर दशई घर के देवता के आगे रात में घी का दिया जलाया जाता और धूप से होमाद होता था।
दशई आने से पहले सवा किलो धूप खरीद कर उसमे घी, जौ, तिल और थोड़ा अरबा चावल मिला कर होमाद के लिए धूप तैयार कर लिया जाता था। रात में देवता के घर में लोग जब होमाद करते तो पूरा टोला धूप के गंध से मह-मह करने लगता था। कक्का के पट्टीदार के घर में कलस्थापन होता और नौ दिन तक पंडित जी आ कर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे। बीजे के दिन भोरे उठ कर नौ दिन के होमाद का राख दउरी में रख कर कौआ बोलने से पहिले नदी में भसाया जाता था। दस बजे से पंडित जी लोग जजमान को जंतरी बांधने आने लगते थे। पंडित जी के साथ आठ-दस साल का लड़का भी होता था जो 60-70 साल के बूढ़े के माथे पर भी हाथ रख कर ‘जय जयंती मंगलाकाली, भद्र काली कपालिनी, दुर्गा, क्षमा ,शिवा , धातृ, स्वाहा, सुधा ,नमस्तुते’ मंत्र पढ़ते हुए जंत्री बांधते थे। बदले में यजमान उन्हें पइसा और अनाज देकर आदर से विदा करते थे। परसन कक्का को यह भी याद है कि जब ऊ पंडित जी से पूछते थे कि इस बार जंत्री का डीभी केहन रहा ? माने खूब हरियर कचनार होकर निकला न ? तब पंडी जी कहते थे हां यजमान, बहुत ही बढ़िया रहा जंत्री का डीभी। उनके ई पूछने का माने था कि जब पंडी जी के जंत्री का डीभी बढ़िया होगा तबहिए किसान के खेत में रब्बी का फसल लहलहाएगा। बीजे (विजयदशमी) के बाद से किसान अपने खेत मे रब्बी फसल की बुआई शुरू करते थे।
अब त पहिले वाला खेतियो कहां रहा ? तब एक कहाबत सब के जुबान पर थी- बीजे बीस दिवाली, सुकरातिए छवे छठ, छठे चारे गंगा स्नान, ऊंहा से आएब त काटब धान। माने बीजे के बीसवां दिन दिवाली, दिवाली के बिहान भेले सुकराती, सुकराती के छठवां दिन छठ और छठ के चौथा दिन कार्तिक पूर्णिमा का गंगा स्नान। इसके बाद धनकटनी शुरू होती थी। दशईं के सतमी और नउमी की रात परसन कक्का अपना संहतिया के साथ गांव के रामरूप भगत के यहां टेका में जरूर जाते थे। टेका में दूर-दूर से भगत आते थे। खूब ढोल नगारा बजा-बजा के भुतखेली होता था। कारनी लोग भेंटी रखते थे। भेंटी में एगो पान का पत्ता आ छलिया कसेली कारनी अपना हाथ में लेकर चुपचाप टेका में बैठता था और भगत खेलाते हुए बारी बारी से कारनी का नाम पूछता और उसके मन की बात बता कर थोड़ा भभूत उसके हाथ में देकर कहता ‘ जो तोरा मन के मुराद पूरा हो जतऊ त अगिला दशई में देवी के खंसी चढ़बही न ? कारनी बेचारा खुश होकर कहता ‘जी सरकार। ‘
यही सब बितलाहा बात सोंचइत परसन कक्का गांव के दुर्गा पूजा के पंडाल से छोटका पोता के जौरे मेला देख कर लउट रहे थे कि रस्ता में उनको घोंचू भाई भेंटा गये। ‘किधर से आ रहे हैं कक्का ?’ घोंचू भाई ने आदतन उनसे पूछ ही दिया । ‘ हो, ई गहनुआं दिने से मेला देखने जाने के लिए रोदना पसारले था । सो इसी को मेला घुमाने ले गये थे। अब पहिले बाला बात तो रहा नहीं , अब त गांव-गांव में दुर्गापूजा का मेला लगता है सो लड़िकवन सब दू दिन पहिलही से मेला देखने का जिद ठान लेता हय। हमलोग भी त लड़िकारी में एन्हाति न करते थे ? हां कक्का ऊ समय दूसरा था। दशई में लोग बड़ा नेमटेम से दुर्गा पूजा करते थे । कहीं भी कोई आडम्बर नहीं होता था। सब कुछ सच्चे और सात्विक मन के साथ लोग मां दुर्गा की अराधना करते थे। आज तो हर चौक चौराहे पर पूजा का पंडाल और गांव-गांव में मेला। दस दिन तक लाउडस्पीकर पर द्विअर्थी गीत और डीजे की कर्कश ध्वनि नाको दम किए रहता है। पूजा पंडाल की सजावट को लेकर आयोजकों में बड़ा गलाकाट प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है। आस्था की जगह आडम्बर ने ले लिया है। इस आडम्बर में करोड़ों रूपये स्वाहा किया जाने लगा है। ‘जानते हैं , कक्का ? दुर्गापूजा का कुछ ऐसा श्लोक है जिसका पाठ इस अवसर पर लोग बड़ी श्रद्धा से करते हैं, मगर जीवन में उसका पालन नहीं किया जाता है। यही तो बड़ी बिडम्बना है।
अब आप ही बताइए, ‘या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनम:, । या देवी सर्व भूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनम: और इसी तरह देवी दुर्गा को जाति रूपेण, दया रूपेण, शांति रूपेण, क्षांति रूपेण, विद्या रूपेण, बुद्धि रूपेण, बताते हुए श्लोक का पाठ तो किया जाता रहा है लेकिन हम अपने वास्तविक जीवन में नारी जाति को कहां मां का आदर और सम्मान दे पाते हैं ? शक्ति स्वरूपा देवी तो मनुष्य को सम्मान देने के साथ-साथ अपने भीतर क्षमा, दया , त्याग, बुद्धि, विद्या, सहिष्णुता, लज्जा, उर्जा, चेतना आदि उन्नत मानवीय गुणों को विकसित करने का संदेश देती है। ऐसे थे हमारे पूर्वज जिन्होंने इसतरह के महान श्लोकों की रचना की थी। इसकी आज कितनी अवहेलना हो रही है यह बताने की जरूरत नहीं है ।
हमारे पूर्वज कभी सोंचे भी नहीं होंगे कि कभी उन्हीं के वंशज उनके द्वारा स्थापित आदर्शों को ठेंगा दिखा देंगे । धार्मिक अनुष्ठान , पूजा-पाठ आज आडम्बर बनकर बाजार के अधीन हो गया है। ‘कक्का, इस दुर्गापूजा से आपका दशईंए ठीक था। क्योंकि तब इसमें इतना आडम्बर तो नही था न ?