दाना मांझी ने अपनी अनग की आख़िरी ख्वाहिश पूरी कर दी

दाना मांझी ने अपनी अनग की आख़िरी ख्वाहिश पूरी कर दी

धीरेंद्र पुंडीर

dana-majhi-2दाना मांझी उड़िया के अलावा दूसरी कोई भाषा नहीं बोल पाता है। अनग देई तो अब कोई भी भाषा नहीं बोल पाएंगी। जिंदगी भर अनग देई और दाना मांझी ने एक साथ जाने कितनी दूरी तय की इसका कोई हिसाब किसी के पास नहीं होगा। शहर के मुख्यालय तक पहुंचने तक पचपन किलोमीटर तक का सफर तय करना होता है। गांव की हाट तक पहुंचने तक ही लगभग बारह पन्द्रह किलोमीटर का पैदल सफर तय किया होगा कई बार। उस वक्त जब जेब में इतने पैसे रहे हों कि हाट से कुछ खरीद सके। इसके अलावा घर के आंगन से मजदूरी करने की जगह तक अनग देई और दाना मांझी के कदम कभी साथ तो कभी अलग-अलग दूरियां नापते रहे हों लेकिन दाना मांझी और उसके कंधे पर अनग देई की 14 किलोमीटर की यात्रा की कहानी ने हजारों किलोमीटर का सफर तय कर लिया। दाना मांझी के कंधे पर पत्नी की अकड़ी हुई लाश और उसके साथ रोती हुई बच्ची को किसी भाषा की जरूरत नहीं पड़ी। उसने अपनी मौन अभिव्यक्ति से ही बता दिया कि कालाहांडी देश भर में लोगों के दिलों में छिपा बैठा है। कालाहांडी की जो कहानी बचपन से पढ़ी वो न कालाहांडी में थी, न कालाहांडी के रास्ते में। हरे-भरे जंगलों के बीच खूबसूरत हाईवे और उसके इधर-उधर लाईन वाले ढाबे। किसी पर भी रूक कर अपनी जानकारी चेक कर सकते है। हर ब्रांड की चीज उपलब्ध है।

दानामाझी की चीख देश में गूंजी तो पुंडीर उसके गांव में पसरे सन्नाटे को कैद करने पहुंचे।
दाना मांझी की चीख देश में गूंजी तो पुंडीर उसके गांव में पसरे सन्नाटे को कैद करने पहुंचे।

खैर बात दानामांझी की है। वही दानामांझी, जिसकी पत्नी अनग देई उसके साथ लगभग तीस साल तक रही। ( दाना की उम्र 42 साल है- और अनग देई उससे छोटी थी)। अनग देई अपने कुछ कदमों के आंंगन में मुस्कुराई, हंसी, रोई या गुनगुनाई लेकिन उसकी आवाज आंगन के बाहर शायद ही कभी गई हो। लेकिन जैसे ही उसका गला बंद हो गया तो एक खामोशी आंगन से उठ कर गगन से लिपटकर चीख में बदल गई। दानामांझी के गांव मेलघरा का वो घर, जिसमें आप अपने को वामन भगवान मान सकते है। तीन कदम रखे और दाना का पूरा घर आपने पार कर लिया। मेलघरा, रिजर्व फॉरेस्ट के बीच बसा हुआ एक बेहद खूबसूरत गांव है। गांव में कुदरत की खूबसूरती है लेकिन इंसानी गरीबी आपसे हर एक कदम पर टकराती है। रास्ता पार करने के लिए एसयूवी चाहिए।

अनग देई को कुछ दिन पहले से बुखार आना शुरू हुआ। नकरूंडी पंचायत में एक पीएचसी भी है। उसमें दो डॉक्टर सरकार के हिसाब से नियुक्त हैं। लेकिन दोनों डॉक्टर मिस्टर इंडिया की फिल्मी आर्ट सीख चुके हैं। कई महीनों तक लोगों को दिखाई दिए बगैर इलाज करते हैं। मेरी मुलाकात एक फॉर्मासिस्ट से हुई, जो डॉक्टरों की ‘ताकत’ के आगे बेबस है। वो दवाई देता है। पूछने पर पता चला कि साहब 15 -20 दिन में कभी-कभी डॉक्टर आ जाते हैं। दाना मांझी आया था या नहीं। नहीं साहब यहां तो आया ही नहीं। ये सरकार का बचाव है। उसी सरकार का जिसके डॉक्टर यहां होते ही नहीं है। अनग को 15 दिन से बुखार आ रहा था और उन लोगो को ये मालूम नहीं था कि ये बुखार हरारत नहीं है और उबला हुआ पानी या फिर मक्का के दाने उबाल कर खाने से नहीं जाना है।

आखिरी वक़्त में अनग दिन-रात बेहोश रही। रोते हुए बच्चों को तसल्ली देने के लिए दाना मांझी अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी कमाई- 4500 रूपए- निकाली और चल दिया बीबी की जिंदगी को यमराज के मुंह से छीनने। 3000 रूपए खर्च किए तो बड़े अहसान के साथ एक गाड़ी आई और वो शहर पहुंच गया। जिला मुख्यालय अस्पताल। काफी बड़ा अस्पताल है। सैकड़ों कर्मचारियों से भरा-पूरा अस्पताल। डॉक्टर ने परखा कि इस महिला को टीबी है। वो हजारों मरीज में से एक हो गई थी। ये और बात है कि दाना मांझी के लिए अनग तो केवल एक थी। दाना मांझी की की पूरी जिंदगी इसी एक महिला के इर्द-गिर्द बुनी गई थी।

dana village-2दाना मांझी को एक घर और बच्चों का उपहार देने वाली उस महिला के लिए बेड नहीं मिला, उसको जमीन पर लिटा दिया गया। और ये भी दाना मांझी को सरकार की दया लगी। घंटों तक जमीन पर लेटी अनग को देखने का समय डॉक्टर के पास नहीं था। डॉक्टर के राउंड का वक़्त मुकर्रर होता है मौत का नहीं। मौत थी कि अनग के चेहरे पर आ रही थी। अनग की बेटी रो रही थी।

इस बीच नर्स ने डॉक्टर की तर्ज पर या डॉक्टर ने नर्स की तर्ज पर कुछ दवाईयां लिख दी। 475 रूपए की दवाई लेकर दाना मांझी फिर से अस्पताल आया, लेकिन दवाईयों का काम तब तक ख़त्म हो चुका था। दाना और उसकी बेटी ने अपनी भूख के लिए भी उन पैसों को इस्तेमाल कर लिया, जिनको कभी गाढ़े वक्त के लिए रखा हुआ था। अनग मर चुकी थी। दाना मांझी के लिए दुनिया थम चुकी थी। उधर दुनिया के लिए एक और मरीज ने ईलाज के बीच में दम तोड़ दिया था। दाना ने जैसे ही रोते हुए अपनी बेटी को देखा, फिर अनग को देखा तो उसके मुंह से निकल पड़ा -मर गई। इस तरह के मरीजों को रोज देखने के आदी गार्ड को वो जगह खाली करानी थी। गार्ड ने कहा- अब ये जगह छोड़ दो। दरवाजे को बंद कर दिया गया। जिस जगह से दूसरे मरीजों और तीमारदारों को एक रोता हुआ शख्स दिखाई दे रहा था वो चौखट बंद कर दी गई। दाना मांझी ने गार्ड के पैर पकड़ कर मदद की गुहार की, लेकिन गॉर्ड ने गरीब लोगों के लिए बने हुए नियम के मुताबिक लाश को स्टोेर रूम की जमीन से उठाकर बाहर आंगन की जमीन पर रख दिया।

dana village-3दाना मांझी रो कर मदद मांग रहा था कि पत्नी की लाश घर ले जाने में कोई मदद कर दे। अस्पताल में जो थे वो ज्यादातर दाना मांझी थे हालांकि उनके मां-बाप ने नाम जरूर अलग-अलग रखे थे। किसी ने कहा कि सीडीएमओ के घर जाकर फरियाद करो। डॉक्टर साहब के यहां से उसको पता चला कि वो मदद करने के लिए नहीं बने हैं। लिहाजा अब उसने अपनी दुनियावी हैसियत टटोली। महज कुछ सौ रूपए निकली। फिर उसने इस दुनिया को धता बताते हुए उस लाश को कंधे पर रख लिया।

सुबह मुंह अंधेरे उसने सफर शुरु किया। अस्पताल से बाहर निकलते ही एक बेहद खूबसूरत मंदिर है, जिसमें तालाब में हाथ से सिर पानी छिड़कते हुए सैकड़ों लोग अल सुबह माथा टेकने पहुंचते हैं। वो लोग दाना मांझी के सामने थे। और दाना मांझी उनके बीच से गुजर रहा था। दाना मांझी के साथ उसकी रोती हुई बच्ची और कंधे पर उसकी अनग का अकड़ा हुआ शव। दाना मांझी ने मंदिर पार किया तो फिर वो जिस जगह पर था वो लोकतंत्र के नायकों का घर था। ये लोकतंत्र के रक्षक हैं। डीसी कह सकते है डीएम कह सकते है या जिला कलक्टर भी कह सकते हैं। जिले का मालिक।

dana village-1दाना मांझी आगे बढ़ गया। गांव आया । फिर दूसरी बस्ती आई। और आखिर में दस किलोमीटर बाद सगड़ा गांव आया। गांव के कुछ लोगों ने लाश को देखा और फिर उसको रोक कर पूछा। दाना ने सारी कहानी बताई अपनी बेचारगी बताई और आगे चलने लगा। गांव वालों ने लाश नीचे रखवा ली और कहा कि यदि चाहो तो इसी गांव में अंतिम संस्कार कर सकते हो, गांव वाले मदद कर लेंगे। यहां से 45 किलोमीटर तक आगे पैदल जाना आसान नहीं है। गांव का रास्ता घने जंगलों के बीच से है, जहां जंगली जानवरों से सावधान रहने के बोर्ड रास्ते में है।

dana-majhi-3दाना ने गांव वालों के बीच से अपनी पत्नी की लाश उठाई और बिना बोले आगे बढ़ गया। आगे रिजर्व फॉरेस्ट की पहली चौकी थी। चौकी पर गांव के एक आदमी की तैनाती थी। उसने दाना मांझी से लाश रखवा ली। और फिर गांव के लोगों ने शहर में कुछ पत्रकारों को फोन कर दिया। इस फोन ने अचानक एक गुमनाम को दाना मांझी बना दिया। कहते हैं पत्रकारों ने आकर उसको कई बार पत्नी की लाश उठवा कर, चलवा कर देखा। फिर स्थानीय प्रशासन और राजनेताओं को जगाया। मीडिया ने फोन किया है, किसी गरीब ने नहीं। इस पर फौरन हरकत हुई और 3000 रूपए और एक गाड़ी की व्यव्स्था हुई। खैर दाना मांझी अपनी अनग को लेकर गांव चला गया। उसने अपने श्मशान में अनग का आखिरी विदाई दी।

इस दौरान देश और देश के बाहर मीडिया में एक बेबसी की कहानी दौड़ने लगी। पत्रकारों की रगो में दर्द उबलने लगा। अखबारों के काले अक्षरों में दर्द की लहरें उमड़ने लगी।और बेबसी और गरीबी की कहानी के लिए शब्द खोजे गए। बच्चे बेचने की पुरानी कहानियों को लाईब्रेरियों से निकाला गया। और फिर एक बेहतरीन इमोशनल स्टोरी तैयार की गई। प्राईम टाईम की प्राईम कहानी। दर्द, गरीबी और अभाव की कहानी।

dana village-4मैं भी गरीबी के मारे हुए इस शहर में पहुंचा। खाट पर लेटे हुए मांझी से पूछा कि खबर कैसी लगी जो आपको लेकर चल रही है और अखबारों में लिखी जा रही है। इस पर मांझी ने जवाब दिया कि पूरे गांव में कोई टीवी नहीं है और सालों से इन खंभों में बिजली नहीं आई। अखबार गांव में आता नहीं है और कोई लाए तो भी मांझी को पढ़ना आता नहीं है। मैंने पूछा कि लाश को इतने दूर तक लाने की जरूरत क्या थी। गांव में अकेले अपनी खाट पर बैठे हुए मांझी का जवाब था कि एक साल पहले जब अनग को मलेरिया हुआ था तो नाकरूंडी पंचायत अस्पताल में दिखाया था। उसी दौरान अनग ने उससे कहा था कि उसकी मौत कहीं भी हो जाए लेकिन उसको आखिरी मिट्टी अपने गांव में ही देना।

dhirendra pundhir


धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है। 

One thought on “दाना मांझी ने अपनी अनग की आख़िरी ख्वाहिश पूरी कर दी

  1. ऐसी घटनाओं पर शानदार या सुन्दर अभिव्यक्ति कहकर टिपण्णी करना मेरी समझ में अमानवीयता की ही अलग श्रेणी है आज पीड़ाओं को साझा करने की आवश्यकता है उसकी पीड़ा में आप शामिल हुए इसके लिए अवश्य साधुवाद।

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