बच्चे फटकार की नहीं प्यार की भाषा समझते हैं

बच्चे फटकार की नहीं प्यार की भाषा समझते हैं

अरुण प्रकाश

बच्चे का मन गंगा की तरह पवित्र और निर्मल होता है। उसमें ना कोई छल होता है और ना ही कपट। उसके मन में जो कुछ चलता है वो झट से हमारे-आपके सामने बोल देता है। तो फिर हम उस बाल मन को समझ क्यों नहीं पाते? गलती किसकी है, हमारी या फिर बच्चे की? माना कि शहरी जीवन शैली गांवों की तरह सरल और सहज नहीं होती फिर भी गांव के मुकाबले महानगरों में अपने बच्चे की बेहतर परवरिश की फिक्र ज्यादा रहती है।

पिछले दिनों गाजियाबाद के वैशाली में महज मां-बाप की डांट की वजह से दो बच्चे घर छोड़कर भाग गए तो दिल्ली के मयूर विहार फेज 3 में भी ऐसी ही एक घटना सामने आई। इन दोनों घटनाओं में एक बात कॉमन थी। दोनों जगहों पर वजह पीटीएम में टीचर से मिली शिकायत के बाद बच्चों को कड़ी फटकार लगी। इस घटना ने हमारे मन-मष्तिस्क को भीतर से झकझोर दिया। कई दिन तक दोस्तों और साथियों से बातचीत होती रही और सबकी चिंता एक जैसी ही थी। सभी ने कहा कि इस घटना को हल्के में नहीं लेना चाहिए क्योंकि यह हमारी और आपकी जिंदगी से सीधा जुड़ा है।

लिहाजा कोई ऐसा रास्ता तलाश करने की बात होने लगी जिससे हम अपने बच्चों को समझ सकें। तय हुआ कि बच्चों से खुले मन से बात करने के लिए एक प्लेटफॉर्म बनाया जाए जहां बच्चे भी हों और अभिभावक भी साथ में एक्सपर्ट भी। बदलाव और ढाई आखर फाउंडेशन के साथियों ने बिना देर किये कार्यक्रम की रूप रेखा तय की। इसकी शुरुआत उसी जगह करने का फैसला किया, जहां से सबसे बच्चों के गायब होने की ख़बर आई थी, यानी वैशाली सेक्टर 6, गाजियाबाद। कार्यक्रम का नाम रखा गया- कैसे करें बच्चों के मन की बात ?

कार्यक्रम में गाजियाबाद के एसपी सिटी आकाश तोमर, शिक्षा जगत से जुड़े लोग, डॉक्टर और मनोचिकित्सक मौजूद रहे। पत्रकार, साहित्यकार भी एक्सपर्ट पैनल में शामिल हुए। हर किसी ने इस बात पर जोर दिया कि हमें अपने बच्चों को डांटने-फटकारने की बजाय प्यार से पेश आना चाहिए। हालांकि कहने में ये बहुत अच्छा लगता होगा लेकिन व्यवहार में उतना ही मुश्किल होता है। ये तभी संभव है, जब हम बच्चों के लिए वक्त निकालेंगे। जिन बच्चों के लिए हम दिन-रात मेहनत करते हैं अगर उनके लिए हमारे पास दो घंटे का वक्त भी नहीं है तो फिर ये नौकरी, ये बिजनेस या फिर पैसा किस काम का।

जब हम थक-हार कर घर आते हैं तो मन करता है कि बस सो जाएं या फिर कोई बातें ना करे, थोड़ी देर अकेले में रहें। फिर भी जब बच्चा आपके ऊपर आकर कूदने लगता है, तो आप क्या करते हैं। क्या आप उस पर झल्लाते हैं या फिर उसके साथ खेलने लगते हैं? वक्त होने पर उसके साथ घर से बाहर जाकर पार्क में कुछ पल बिताते हैं। अगर झल्लाते हैं तो जाहिर सी बात है आप बाल मन को समझने की बजाय उससे और दूर होने का रास्ता बना रहे हैं। धीरे-धीरे हम बच्चों से कब दूर हो जाते हैं पता भी नहीं चलता।

मैं कोई मनोचिकित्सक नहीं हूं लेकिन 6 साल के बच्चे का बाप हूं। अपने अनुभव से कह सकता हूं कि बच्चों पर झल्लाना कोई रास्ता नहीं। अमूमन मैं ऑफिस की थकान या फिर गुस्सा घर लेकर नहीं लौटता। फिर भी किसी वजह से अगर थकान है तो भी कोशिश करता हूं कुछ पल बच्चे के साथ गुजारूं। सुबह 8-5 की शिफ्ट कर घर लौटने के बाद मैं कितना भी थका रहूं कम से कम आधे घंटे के लिए बच्चे के साथ पार्क में जरूर बिताता हूं। उसके बाद घर पर भी कोशिश होती है कि कुछ पल अलग से उसके लिए दूं। अमूमन पीटीएम मैं और पत्नी दोनों अटेंड करते हैं। स्कूल से शिकायत भी मिलती है। पत्नी शिकायत सुनकर थोड़ा गुस्सा भी होती है। मेरी कोशिश होती है कि बेटे और पत्नी दोनों को समझाऊं। कभी-कभी मैं भी गुस्से में आकर कड़ी फटकार लगा देता हूं या फिर एक चाटा भी जड़ देता हूं, लेकिन ऐसा करने के अगल ही पल उससे बेहद ही संजीदगी से समझाता हूं।

बच्चे फटकार की नहीं, प्यार की भाषा जल्दी सीखते हैं। आप उस पल को याद कीजिए जब पहली बार आपके घर में बच्चे की किलकारी गूंजी। बच्चा जब पैदा होता है तो सबसे ज्यादा खुशी मां-बाप को ही होती है। उस दिन तो हम समय का रोना नहीं रोते। जहां कहीं भी होते हैं, जिस हाल में भी होते हैं फौरन अपने लाडले के पास पहुंचना चाहते हैं। उस वक्त आपकी इस खुशी में ऑफिस का कोई काम बाधा नहीं डाल पाता। बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो हर मां-बाप को उसकी एक-एक हरकत याद रहती है, जिसे हम ताउम्र भूल नहीं पाते।

करीब तीन साल की उम्र तक हम बच्चे की हर जरूरत का ख्याल रखते हैं। जैसे ही वो स्कूल जाने लगता है, अपना दिमाग इस्तेमाल करने लगता है। समाज में अपने आस-पास घटने वाली हर छोटी-बड़ी हलचल को समझने लगता है तो जाहिर सी बात है उसके जेहन में ढेरों सवाल उठते हैं। वो उसके बारे  बातें भी करना चाहता है, लेकिन मां-बाप के पास वक्त नहीं होता तो फिर किसके पास जाये। लिहाजा जरूरत हमें अपने आपको बदलने की है। ईमानदारी से अपनी प्राथमिकता तय करने की है।


arun profile1अरुण प्रकाश। उत्तरप्रदेश के जौनपुर के निवासी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय।