बदलाव प्रतिनिधि, मुजफ्फरपुर
बिहार में जब पहला चरवाहा विद्यालय खुला तब राज्य के प्रबुद्ध लोग इसका मखौल उड़ाने लगे थे। लोग अक्सर यह कहते सुने जाते कि चरवाहा विद्यालय खोल कर लालू प्रसाद नई पीढ़ी को चरवाहा ही बनाना चाह रहे हैं। इससे कुछ भी होने-जाने वाला नहीं है। उनके चरवाहा विद्यालय वाले इस प्रयोग को सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का माध्यम भी बताया गया। मीडिया के जरिए जब विदेशों तक लालू प्रसाद के चरवाहा विद्यालय के इस अभिनव प्रयोग की बात पहुंची तो श्रीलंका, अमरिका और जापान से कई टीम इस विद्यालय को देखने आई थी। विद्ययालय के संस्थापक प्रधानाध्यापक सीताराम बाबू बताते हैं कि एक दिन श्रीलंका की टीम इस चरवाहा विद्यालय में पहुंची। परिसर में मकई की कुछ कच्ची बालियां पड़ी हुई थीं । जिसके दाने अभी पके नहीं थे। टीम के एक व्यक्ति ने उसे देख कर आश्चर्य से उसके बारे में पूछा कि यह क्या है ? जब उन्हें बताया गया कि यह मकई का कच्चा बाल है और लोग इसे कच्चा या आग में भून कर ( होरहा ) खाते हैं। बड़ा स्वादिष्ट होता है। उनसे इतना सुनते ही टीम के सदस्य बड़े प्रेम से मकई के कच्चे- मीठे दाने दांतो से नोच-नोच कर खाने लगे थे।
डॉक्टर ए के विश्वास उस समय तिरहुत प्रमंडल के कमिश्नर थे। उन्होंने चरवाहा विद्यालय में काफी सम्भावनाएं देखी थीं। तब उन्होंने चरवाहा विद्यालय के कंसेप्ट की सराहना करते हुए एक लेख लिखा था जो प्राथमिक शिक्षक संघ के 8-9 अप्रैल 1993 में हुए दो दिवसीय अधिवेशन के उपलक्ष्य में प्रकाशित स्मारिका में छपा था। डाक्टर विश्वास ने अपने इस लेख की शुरुआत अमेरिकी इतिहासकार पत्रकार मिस कैथरिन मेयो की पुस्तक मदर इंडिया का उल्लेख किया है। मिस कैथरिन मेयो 1924 -25 में भारत की यात्रा पर थीं। इस दौरान उन्होंने यहां की महिलाओं , अछूतों, दलितों और गरीबों की स्थिति को बड़ी निकटता से देखा था। डॉक्टर विश्वास के इस आलेख का शीर्षक है ‘चरवाहा विद्यालय– एक दृष्टि। यहां प्रस्तुत है उस आलेख का कुछ महत्वपूर्ण अंश। डॉक्टर एके विश्वास अपने इस आलेख की शुरुआत मिस कैथरिन मेयो की पुस्तक मदर इंडिया के इस अंश से किया हैं-‘अमेरिकी पत्रकार कैथरिन मेयो ने 67 वर्ष पूर्व 1927 में कहा था, भारत जबतक अछूतों, औरतों के सम्बंध में अपने दृष्टिकोण में बदलाव नहीं लाता, तबतक वह पृथ्वी के निरक्षरों की अग्रिम पंक्ति में बने रहने को अभिशप्त रहेगा।’ वे लिखते हैं, उनकी यह कृति “मदर इंडिया” पूरे विश्व में अत्यधिक लोकप्रिय हुई। ऐसी अशुभ भविष्यवाणी शायद ही इस रूप में कभी अक्षरश: सार्थक हुई होगी । शिक्षाशास्त्री अब महसूस करते हैं कि इस सदी के अंत तक, जिसे समाप्त होने में सिर्फ आठ वर्ष बाकी है– भारत माता विश्व के 50 प्रतिशत निरक्षरों की जननी होगी। मेयो की इस दूरदर्शितापूर्ण भविष्यवाणी के लिए उन्हें तत्कालीन भारत का घोर विरोध एवं तीखी आलोचना का लक्ष्य बनना पड़ा था। वस्तुस्थिति यह है कि मिस मेयो 1924 में महात्मा गांधी द्वारा दिए गये इस बयान की पृष्ठभूमि में उपर्युक्त भविष्य कथन किया था — शिक्षा का सामान्य अर्थ अक्षर ज्ञान प्राप्त करना है। बच्चों का पढ़ना-लिखना तथा प्रारम्भिक गणित का ज्ञान प्राप्त करना ही प्राथमिक शिक्षा है। किसान ईमानदारी पूर्वक अपनी रोटी कमाता है। उसके पास संसार का प्रचूर सामान्य ज्ञान होता है। वह जानता है कि अपने माता- पिता, पत्नी, बच्चों और पड़ोसियों के साथ किस प्रकार नैतिक व्यवहार करना चाहिए। वह सद्व्यवहार के अर्थ को समझता है तथा उसके अनुकूल आचरण करता है। यद्यपि वह अपना नाम लिखना नहीं जानता। हम उसे अक्षर ज्ञान देकर क्या सिखाना चाहते हैं ? क्या अक्षर ज्ञान देकर हम उसकी खुशी में रंचमात्र बढ़ोतरी कर सकते हैं? इस प्रकार की शिक्षा को अनिवार्य बनाना आवश्यक नहीं है। हमारी प्राचीन विद्यालयी परम्परा यथेष्ट है। भारत शासन अधिनियम 1919 के पारित होने पर अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के सम्बंध में महात्मा गांधी की राय पूछे जाने पर उन्होंने इस सम्बंध मे उपर्युक्त प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। उस अधिनियम के अधीन गठित मंत्रिमंडल में भारतीयों के प्रतिनिधियों को शिक्षा का प्रभार मिला था। आज प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण सबसे बड़ी राष्ट्रीय आवश्यकता है।
1980 के दशक में बिहार में शिक्षा की स्थिति पर डाक्टर विश्वास अपने इस आलेख में आगे लिखते हैं ‘ बिहार में शिक्षा की स्थिति और भी खराब है। 1981 में कोई 46.6 प्रतिशत पुरुष एवं 16.5 प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं ‘। 1991 मे पुरुष 52.6 और महिलाएं 23.5 प्रतिशत साक्षर थीं। शहरी और ग्रामीण साक्षरता दर में में भी काफी अंतर है। 1981 में ग्रामीण साक्षरता दर 12.2 प्रतिशत थी जो कि 1991 में बढ़कर 27.2 प्रतिशत हो सकी। दूसरी ओर शहरी साक्षरता दर जो 1981 में 52.2 प्रतिशत थी, 1991 में 57 प्रतिशत हो गई है।’
जातीय आधार पर साक्षरता का आंकड़ा बताते हुए वे आगे लिखते हैं’ 1981 की जनगणना में बिहार में अनुसूचित जाति की कुल आबादी 10142368 ( 5158486 पुरुष और 4983882 महिलाएं) थीं। इसमें 1054488 लोग शहर में थे जिसमें 929553 पुरुष और 124935 महिलाएं थीं। प्रतिशत के आधार पर अनुसूचित जाति की 10.40 प्रतिशत आबादी 1981 में साक्षर थी जिसमें 18.2 प्रतिशत पुरुष और 2.51 प्रतिशत महिलाएं थीं। समस्या का अंधकार पक्ष यह है कि राज्य के 5 करोड 60 लाख आबादी ( स्मरण रहे कि यह आलेख 1992 में लिखा गया है ) में 14.5 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जातियों की है जिसका 90 प्रतिशत निरक्षर रहने को विवश है तथा निश्चित तौर पर महिलाएं इसमें सबसे बड़ी भागीदार हैं। ‘
दशकों पूर्व इंग्लैंड में पूर्ण साक्षरता अभियान शुरू किए जाने की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं ‘ दशकों पूर्व अपने वैभव के शिखर पर पहुंचे हुए इंग्लैंड में पाया गया कि बंजारों के कारण वहां शतप्रतिशत साक्षरता नहीं प्राप्त हो रही है। घुमंतु समुदाय होने के कारण बंजारों को पढ़ाकर साक्षर बनाना मुश्किल था। अत: सरकार ने उन्हें पढ़ाने की एक नायाब योजना तैयार की और पूरे जोश तथा संकल्प के साथ उसे लागू किया। इस योजना के अनुसार पूरे बंजारे समूह के साथ एक चलंत विद्यालय की स्थापना की गई जो इस घुमंतू बंजारों के साथ घूम-घूम कर उन्हें शिक्षित करने लगे और इस प्रकार इंग्लैंड में निरक्षरता मिटा दी गयी।’चरवाहा विद्यालय को निरक्षरता उन्मूलन वाले अपने इसी नजरिए से देखते हुए वे आगे लिखते हैं ‘ चरवाहा विद्यालय की अवधारणा को विभिन्न क्षेत्रों में खिल्लियां उडाई गई हैं। यही नहीं, इसे समाचार माध्यमों के उपहास के दुखद दौर से भी गुजरना पड़ा है। प्रमुख निकायों के प्रसिद्ध विशेषज्ञों ने भी इस योजना की उपादेयता के प्रति शंकाएं व्यक्त की हैं। कइयों का कहना है कि यह एक किस्म की दिवानगी है। चरवाहा विद्यालय के शाब्दिक अर्थ को परिभाषित करते हुए अपने इसी आलेख में वे लिखते हैं ‘ चरवाहा विद्यालय का शाब्दिक अर्थ है समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग, चरवाहों की शिक्षा के लिए विद्यालय। लेकिन यह चरवाही तक ही सीमित नहीं है। व्यावहारिक रूप से सभी स्कूल जाने योग्य बच्चे (6–14 आयुवर्ग) जो इस विद्यालय के आस-पास रहते हैं, इसमें नामांकन योग्य हैं। इसमें उच्चतर आयुवर्ग के पुरुष, महिलाएं भी नामांकित होती हैं । जहां बच्चे सामान्य दर्जा से अवगत कराए जाते हैं वहां वयस्क पुरुष और महिलाएं साक्षरता के अलावे कई व्यवसायों और कौशलों मे दक्ष बनाए जा रहे हैं। ये व्यवसाय और शिल्प ऐसे हैं जो विद्यालय क्षेत्र में उपलब्ध कौशलों और प्रशिक्षणार्थियों की अभिरुचि के अनुरूप हैं। वे प्रतिदिन दो घंटे पढ़ाई-लिखाई में बिताते हैं और उसके बाद चार घंटे कला-कौशल का प्रशिक्षण लेते हैं।
डाक्टर विश्वास ने एक दिन चरवाहा विद्यालय का निरीक्षण भी किया था जिसके बारे में वे लिखते हैं ‘ अपने डेढ साल के कार्यकाल के दौरान बिना किसी पूर्व सूचना के तिरहुत प्रमंडल के कई विद्यालयों का जिसमें गोरौल और तुर्की के चरवाहा विद्यालय भी शामिल हैं , मैंने औचक निरीक्षण किया है। चरवाहा विद्यालय को छोड़ कर निरीक्षित अन्य किसी भी विद्यालय में मैंने अभिवंचित वर्ग के छात्रों का इतना बड़ा जमावड़ा नहीं देखा।’ यह चरवाहा विद्यालय गरीब, दलित, अभिवंचित लक्ष्य समूह तक शिक्षा की रोशनी फैलाना शुरू किया ही था कि न जाने इसपर किसकी नजर लग गई और इसने अपना अस्तित्व ही खो दिया। जाहिर है कि चरवाहा विद्यालय की अवधारणा यदि पूरी तरह सफलीभूत हुई होती तो निश्चित रूप से बिहार के माथे पर लगा निरक्षरता का कलंक मिट गया होता।