कुणाल प्रताप सिंह
” बढ़ई बढ़ई खूंटा चीरs,
खूंटे में मोर दाल बा
का खाऊं, का पीऊं
का लेके परदेश जाऊं !”
भोजपुरी अंचल का शायद ही कोई बच्चा हो जिसने अपने नानी व दादी से बचपन में यह लोकगीत नहीं सुना हो। कथा के शिल्प में गाया जाने वाला यह पारंपरिक लोकगीत अपने समय से संवाद करते हुए बच्चों को अनवरत संघर्ष से सफलता हासिल करने की प्रेरणा देता है। साथ ही समाज में छोटे से छोटे और महत्वहीन समझे जानेवाले प्राणी और वस्तुओं (सजीव व निर्जीव) की महत्ता भी स्थापित करता है। लेकिन बाजार के दबाव ने अब भोजपुरी लोकगीतों की जगह फूहड़ता और द्विअर्थी गीतों को चलन में ला दिया है। दूसरी तरफ उसी बाजार ने हमारी महिलाओं को भी जरूरतों के लिए, रोटी व रोजगार के लिए संघर्ष में झोंक दिया है। अब जिंदगी की इस आपाधापी में अपनी परंपराओं व लोकगीतों को भी सहेजने की फुरसत उन्हें नहीं है।
लोप होते भोजपुरी लोकगीतों को सहेजकर और अपना सुमधुर स्वर देकर ‘लोक’ व ‘भाषा’ दोनों की सेवा कर रही है लोक गायिका चन्दन तिवारी। गीत में किस्सागो की भूमिका में है, मंजीत सिंह संधू। बच्चे, जो आजकल नानी-दादी की कहानियों से विमुख होकर इंटरनेट की दुनिया में विचरण कर रहे हैं, उन्हें अपनी जड़ों से जोड़ने की कोशिश भी इस टोली ने की है। इस जोड़ी की योजना शीघ्र ही वरिष्ठ नृत्य कलाकार विपुल दा व आंचल शिशु आश्रम और वंचित समूह के बच्चों को लेकर प्ले और नृत्य नाटिका तैयार करवाकर देश—दुनिया को दिखाने की है।
गीत में जहां गायिका चिड़िया सी चहकती है तो यहां भोजपुरी का भदेश व निराला अंदाज भी अपनी पूरी समग्रता से मौजूद है। गायिका व उसकी टोली का इस लोकगीत की तरफ ध्यान जाना ही उनकी अन्वेषी प्रवृत्ति का द्योतक है। लोकजीवन में रचे-बसे इस गीत को भी संगीत और किस्सागोई के मिश्रण से नया रूप दिया जा सकता है, यह काम इस प्रयोगधर्मी समूह ने कर दिखाया है।
इस गीत की समीक्षा करते हुए कवि व आलोचक ध्रुव गुप्त लिखते हैं, “अपने परिवार के भोजन के लिए खूंटे में फंसे दाल के एक दाने के लिए बढ़ई से लेकर राजा, रानी, सांप, बांस, जंगल, आग, समुद्र और हाथी तक से फ़रियाद करने वाली मासूम चिड़िया की मासूम व्यथा बच्चों को हर दौर में मासूमियत से लबरेज़ करती रही है। नन्हीं चिड़िया को दाल का वह दाना वापस मिलता है चींटियों के साथ और सहयोग से। चिड़िया की यह हृदयग्राही व्यथा बचपन में हमारी अपनी व्यथा हुआ करती थी। दाल के दाने के लिए चिड़िया का अथक संघर्ष हमारी प्रेरणा बनती थी। हमारी समृद्ध लोकपरंपरा की इस सबसे भोली कथा की संगीतमय प्रस्तुति का आप भी आनंद लें और खो जाएं बचपन की भोली स्मृतियों में !”
चन्दन बताती है कि इस गीत को करने से पहले से ही हमारी-—हम सबकी इच्छा थी कि इसे सिर्फ गाना भर नहीं है। इसकी प्रस्तुति बच्चों के बीच करनी है। ताकि बच्चों को यह समझ में आये कि संघर्ष से सफलता मिलती है और धैर्य एक बड़ी चीज है। उसमें भी विशेषकर ग्रामीण और सरकारी स्कूल में पढ़नेवाले उन बच्चों के बीच प्रस्तुति की इच्छा शुरू से रही है, जो अब के समय में हीन भावना से भरते जा रहे हैं कि वे बड़े स्कूलों में नहीं पढ़ते, उनके पास संसाधन नहीं है। इस योजना पर भी काम चल रहा है कि स्कूली बच्चों के बीच जाया जाए और उन्हें इस कहानी को सुनाकर, गीत को गाकर समझाया जाए कि अपना लक्ष्य स्पष्ट रखो, संघर्ष करने की क्षमता रखो, धैर्य रखो, अपने जीवन के सफर में राजा-रानी, हाथी, सागर, आग, जंगल की तरह सिर्फ बड़ों से उम्मीद नहीं करो कि वही मदद करेंगे तो मंजिल मिलेगी, लक्ष्य की प्राप्ति होगी। जिन्हें चीटियों की तरह मामूली समझा जाता है, वे भी मदद करेंगे और समूह में आकर जब वे मदद करेंगे तो फिर जो बड़े हैं, वे भी बाध्य होकर साथ देंगे। लेकिन अपनी मंजिल को पाने के लिए धैर्य रखना होगा, अदम्य इच्छाशक्ति रखनी होगी, संघर्ष से नहीं घबराना होगा।
कुणाल प्रताप सिंह। एमएस कॉलेज मोतिहारी के पूर्व छात्र। समाजसेवी और पत्रकार। इन दिनों इंडिया टुडे से जुड़े हुए हैं। हिंदुस्तान, प्रभात खबर और चौथी दुनिया के साथ भी पत्रकारिता के अनुभव बटोरे। लोक अदालत के सदस्य के बतौर सैंकड़ों छोटे-मोटे झगड़ों के निपटारे में अहम भूमिका निभाई।