सुधा निकेतन रंजनी
‘नौटंकी’ एक संगीत प्रधान नाट्य शैली है, जो उत्तर भारत में कभी सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ करती थी। नौटंकी इतनी लोकप्रिय था कि एक समय में नौटंकी नाटक का पर्याय बन चुकी थी। ‘तमाशा-ए-नौटंकी’ इसी नौटंकी विधा की असीम लोकप्रियता और उसके गर्दिश में चले जाने की विडंबना को बयाँ करती है, पर अलग अंदाज में। यहाँ नौटंकी की धूम मचाने वाला संगीत भी है और हास्य-व्यंग्य से भरपूर माहौल भी लेकिन नाटक कहीं भी अपने विषय से नहीं भटकता अपनी गंभीरता को बनाये रखता है। यह नाटक केवल नौटंकी जैसी कला के क्षीण होने पर नहीं, बल्कि ऐसी बहुत-सी कलायें जो आज समाप्त हो चुकी हैं या समाप्त होने के कगार पर हैं उनके इस स्थिति में पहुँचने पर विचार करने को झकझोरती है। समय के साथ समाज में बदलाव होता है, जिसके साथ लोगों की चित्तवृत्तियाँ भी बदलती हैं। इन बदलाव को ध्यान में रखते हुए कला के रूपों में बदलाव लाना जरूरी है, लेकिन उसका सम्मान बनाए रखना भी एक बड़ी चुनौती हुआ करता है।
नाटक बड़ी ही संजीदगी से इस विधा की चुनौतियों को बयां करता है। इसकी कथा वस्तु एक नौटंकी मंडली के इर्द-गिर्द घूमती है। जहाँ नौटंकी अपनी चरम लोकप्रियता पर है, वाहवाही लूट रही है, सभी कलाकार प्रसन्न हैं। समाज में उनकी कला के कद्रदान हैं। किन्तु जैसे ही लोगों पर आधुनिकता हावी होती है, मनोरंजन के साधन बढ़ते हैं, मशीनीकरण बढ़ता है, चमक-दमक बढ़ती है, धीरे-धीरे उनकी स्थिति में बदलाव आता है और नौटंकी जैसी कलायें गर्दिश में चली जाती हैं।
नौटंकी मंडली में कलाकारों की पहचान केवल उनकी कला से होती थी, न कोई उनकी जाति होती थी न धर्म, न कोई मजहब, न कोई शर्त। बस कलाकार होना चाहिए। इनकी नजर में केवल दो ही तरह के लोग होते हैं- या तो कलाकार या फिर बेकार। धीरे-धीरे सब बिखरने लगता है। मंडली की आर्थिक स्थिति खराब होती जाती है और कलाकारों की निष्ठा डोल जाती है। एक-एक करके सभी मंडली छोड़ देते हैं, बाईजी के साथ केवल सरदारजी मंडली में रहते हैं।
इस नाटक में नौटंकी में काम करनेवाले पात्रों के जीवन संघर्ष को भी दिखाया गया है। नौटंकी में काम करने वालों की आर्थिक स्थिति पहले से ही अच्छी नहीं होती और जब नौटंकी में कला का प्रदर्शन करके पेट भी न भरे तो काहे की निष्ठा। भूख इंसान से क्या- क्या नहीं करवाती। सभी पात्र जॉय के बहकावे में और पैसे की लालच में चले जाते हैं, पर वहाँ कोइ उनकी कला को पहचानने वाला नहीं, वहाँ काम करके सभी निराश हो जाते हैं।
बाईजी को विश्वास है कि एक दिन सब वापस आयेंगे, सब ठीक हो जाएगा क्योंकि ‘कलाकार पात्र निभाना नहीं जीना चाहता है। बाईजी कला की पुजारन है, कला की इज्जत करती है पैसा कमाना केवल उनका उद्देश्य नहीं है। इसलिए उसे सरेआम बाजार में नहीं बेचती। उसे भरोसा भी है कि कलाकार अपनी कला से दूर होकर फूहड़पन को अपनाकर खुश नहीं रह पायेंगे और यही होता भी है सभी कलाकार वापस आते हैं। यह कला की मौलिक कल्पना है जिससे उम्मीद की किरण जलती है कि कलाकार भले ही कुछ वक्त के लिए अपनी निष्ठा से भटक जायें पर कला को छोड़कर नहीं रह सकते।
भारतेंदु नाट्य उत्सव में साजिदा निर्देशित नाटक तमाशा ए नौटंकी का प्रदर्शन सफल रहा। तारीफ करनी होगी संगीतकार की जिनका संगीत इस नाटक की जान है जिसे लोग बाहर निकलकर भी गुनगुनाना नहीं भूलते। मोहन जोशी का आलेख इसकी आत्मा है जिन्होंने नौटंकी विधा को सकारात्मकता के साथ प्रस्तुत किया और अंत में इसे बचे रहने का संकेत दिया। सभी पात्र प्रशंसनीय हैं सबने अपने किरदार को बखूबी निभाया।
सुधा निकेतन रंजनी। दरिया साहब पर जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी से शोध। फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरू कॉलेज में अध्यापन। बिहार के छोटे से गांव से दिल्ली तक के सफ़र में सुधा ने लंबा संघर्ष किया है, जो सतत जारी है। वो महानगरीय जीवन में हर दिन स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ती हैं, बिना किसी शोर-शराबे के।