केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री ने 11 अगस्त को डॉटर्स डे के तौर पर मनाने की शुरुआत की है। ये एक बेहतरीन पहल है। बेटियों को हिंदुस्तान में क्यों नहीं मिल पाती आज़ादी, क्यों वो असुरक्षित महसूस करती हैं, इस पर तो खूब जिरह होती है। लेकिन आज एक बेटी की जुबानी एक ऐसा किस्सा, जहां एक पिता का स्नेह है और सुरक्षा का भाव।
शालू अग्रवाल
कुछ दिन पहले की बात है। ऑफिस से स्कूटी से घर आ रही थी। रात कुछ ज्यादा हो चुकी थी। मेरठ जैसे शहर में, हमारा तो रोजमर्रा का काम है इसलिए आ रही थी। तभी स्कूटी पंचर हो गई। सड़कें सुनसान थी। दुकानें भी बंद। शहर का यह इलाका बेहद संवेदनशील और असुरक्षित माना जाता है, तो घर जाने की दिक्कत। स्कूटी का पहिया जाम हो चुका था। स्कूटी आगे खिसकने का नाम ही नहीं ले रही थी। तभी इस सड़क पर पड़ने वाली एक पंचर शॉप का ख्याल आया, जिसके सामने से हर रोज न जाने कितनी बार गुज़री हूँ, मगर कभी गई नहीं। किसी तरह स्कूटी वहां ले गई, दुकान खुली देखकर जान में जान आई। दुकान पर एक 55-60 वर्षीय व्यक्ति और एक युवक था, जो लगभग शटर गिराने की तैयारी में थे।
मैंने पूछा- क्यों भाई पंचर लगा दोगे।
युवक बोला- हाँ बिलकुल।
मन मे अकेले रुकने का डर भी था। इलाका भी ठीक नहीं।
मैं इसी सोच में डूबी थी तभी वह व्यक्ति बोला
बेटा आप अंदर आकर बैठ जाओ, अभी पंचर बन जायेगा।
अविश्वास की भावना से भरी मैं,
मैंने कहा नहीं यहीं ठीक है।
दुकान के भीतर बैठा वह व्यक्ति शायद मेरा मन भाप चुका था। थोड़ी देर खामोश रहा, फिर बोला
मेरी भी बेटी आपके बराबर है।
सीए की तैयारी कर रही है।
अच्छा, मैंने उत्तर दिया।
फिर बोले
मैंने अपनी बेटी को पढ़ने से कभी नहीं रोका। न अपनी मर्जी उस पर थोपी।
उनकी बातें सुनकर मुझे थोड़ा भरोसा जागा और में स्कूटी के सुधरते टायर के बजाय उन्हें देखने लगी।
वो बोले बेटा आपको कहां जाना है?
आप जॉब करते हो?
जी
कहाँ पर,
उनके सवाल का जवाब मैंने दिया
अब मुझे उस व्यक्ति पर नहीं बल्कि एक बेटी के पिता पर भरोसा हो रहा था, इसलिए मैंने उनकी बातों का जवाब दिया। तभी स्कूटी सुधार चुका युवक बोला
दीदी स्कूटी बन गई, लो।
मैं पर्स से पैसे निकालकर देने लगी तो उस व्यक्ति ने इंकार करते हुए कहा
नहीं बेटा आप रहने दो, पैसे देने की जरूरत नही, बेटियां तो किस्मत वालों को मिलती हैं, आपसे पैसे नहीं ले सकता।
उस युवक को बोला जाओ इनको छोड़ आओ।
उस व्यक्ति की बातें सुनकर में अचंभित रह गई कि क्या ऐसे लोग भी आज समाज में हैं। जो हर किसी की बेटी को अपनी बेटी की तरह मानते हैं। या वो युवक जो अपनी बहन की तरह मुझे देखकर बोला -अरे ये दीदी तो पिछले 5 साल से रोजाना आती जाती हैं, में तो कई बार देख चुका हूँ।
आइये दीदी आपको छोड़ आऊं।
उन दोनों की बातों और सम्मान ने मुझे भावुक कर दिया। मुझसे पैसे नहीं लिए। अंजान व्यक्ति के लिए मन में आदर भाव आ गया।
मैंने कहा नही अंकलजी में चली जाऊंगी। धन्यवाद।
वो बोले अच्छा बेटा आराम से जाना।
कभी भी कोई बात हो तो बता देना। बेटियां तो नाम रोशन करती हैं, जैसे आप भी अपने पिता का नाम रोशन कर रही हो। आजकल बेटे नही बेटियां ही माता पिता की अपनी होती हैं। किस्मत से बेटियां मिलती हैं।
उनकी बातों से मन गर्व और खुशी से भर गया।
स्कूटी स्टार्ट करके मैंने चलते- चलते कहा- जी अंकल जी। नमस्ते थैंक्यू।
5 साल तक जिस दुकान के सामने से गुजरते हुए मैंने उधर देखा भी नही, उस दिन से बेटी के पिता ने एक भरोसे का नाता जोड़ दिया। जहाँ मैंने खुद को सुरक्षित पाया।
उस दिन से दुकान के सामने से जब भी गुजरी, तो मेरी स्कूटी के ब्रेक खुद ही लग गए।
अंकलजी नमस्ते, कहकर ही आगे बढ़ती हूँ।
उनकी बात बेटियां तो नाम रोशन करती हैं, एकदम आत्मा को छू गई है।
काश! सभी पुरुष इस बात को समझे, तो शायद बेटियां हमारे समाज में भी सुरक्षित हो जाएं।
शालू अग्रवाल। मध्यप्रदेश के जबलपुर की निवासी। पिछले कई सालों से मेरठ में रहते हुए पत्रकारिता में सक्रिय। रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर और सीसीएस, मेरठ से उच्च शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का अध्ययन। आपकी संजीदा और संवेदनशील पत्रकारिता को कई संस्थाओं ने सराहा और सम्मानित किया।
Pinkey Rastogi -Gazab
Sangita Srivastava- V nice
Pushya Mitra- वाकई. दिल को छू गया…. इन दिनों सबसे अधिक नुकसान भरोसे का ही हुआ है. ऐसे में भरोसा जगाने वाली कहानियां बहुत प्रेरित करती हैं.