निराला
फेसबुक, 19 जुलाई। हमारे देश में एक तरह की जलवायु नहीं है। मौसम बदलते रहते हैं। बारिश कहीं ज्यादा तो कहीं कम होती है। जैसलमेर में 15 सेमी तो मेघालय में, जिसका नाम ही मेघों पर पड़ा है, पानी सेंटीमीटर में नहीं मीटरों में गिरता है। छत्तीसगढ़ में दो-तीन सौ सेंटीमीटर बारिश होती है।
हमारे लोगों ने बिना किसी आधुनिक सरकार के, नेहरूजी की, इंदिराजी की, राजीव की, महात्मा गांधी वाटर मिशन की, मोदीजी के ‘अच्छे दिन’ का इंतजार किए बिना सैकड़ों-हजारों सालों से अपना जलप्रबंधन कर रखा था। नहीं करते तो जिंदा कैसे रहते? या तो बाढ़ में वे बह जाते या अकाल में मर जाते। हमारे यहां अकाल न पड़ा हो ऐसा नहीं है। आप इतिहास में झांकेंगे तो देखेंगे कि हमारे यहां जो सबसे बुरे अकाल पड़े हैं वे सब ईस्ट इंडिया कंपनी की राजस्व नीति के कारण पड़े, जमीन के स्वामित्व और जल-प्रबंधन के बिगड़ने के कारण पड़े।
इतिहास से एक मोटा आंकड़ा यह निकलता है कि पांच लाख गांवों का हमारा देश था। कुछ हजार छोटे बड़े शहर थे। उज्जैन और काशी जैसे शहर शाश्वत कहलाते थे। इनका चार-पांच हजार साल का इतिहास है। इन बूढ़े शहरों के आगेे दिल्ली, मुंबई जैसे शहर तो बच्चे हैं। किसी का पांच सौ साल का इतिहास है तो किसी का हजार-सात सौ साल का। ऐसे देश में 25 से 30 लाख तालाब थे। ये सब बिना इंजीनियरों के बनाये गये थे। अनपढ़ बताये गये इसी समाज ने बनाया था। और मौसमों को देखकर बनते थे ये। इनमें से शायद ही कोई ऐसा होगा जो अतिवृष्टि में टूट गया हो।
एक समय में छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज में तालाबों के इतने सुंदर विशेषज्ञ थे कि उन्होंने तरह-तरह के कितने ही तालाब बनाए। पर इन सबसे हमारा ध्यान हटा दिया गया। उनके स्वामित्व का अपहरण किया गया। उनके हाथ से उनके साधन ले लिये गए। और गरीब, और लाचार बनाकर किसी कोने में उन्हें फेंका गया। इसलिए हम आज असहाय होकर पानी के लिए सरकार की ओर देखते हैं कि साहब हमारे गांव में जल संकट है, टैंकर भेज दीजिए।
ट्यूबवेल, हैंडपंप आदि तो पानी बांटने के साधन हैं। अगर इनका उपयोग नहीं होगा, दुरूपयोग होगा तो ये पानी के सारे साधनों को सुखा देंगे। जमीन के भीतर का पानी बैंक में रखा गया एक तरह का फिक्स्ड डिपॉजिट है। ऊपर का पानी करेंट अकाउंट है। कभी भी जाओ निकाल लो। फिक्स्ड डिपॉजिट तोड़ते नहीं हैं, संकट में ही इस्तेमाल करते हैं। इसलिए भीतर का पानी कम ही निकालना चाहिए लेकिन आज हम धड़ाधड़ सारी धरती को छेदते जा रहे हैं।
(अपने प्रिय, प्रियतम लेखक, आत्मीय—आदरणीय अनुपमजी पर निकले गांधी मार्ग के विशेषांक को कल से ही पढ़ रहा हूं. मैं खोया हूआ हूं गांधी मार्ग के इस अंक में. साझा करता रहूंगा. अनुपम एक ही थे, दूसरा कोई दिखता नहीं जो उनकी तरह सहज बोल सके, लिख सके, रह सके, बता सके, सहजता से प्रेरित कर सके। प्रभात भाई, आपको कैसे शुक्रिया कहूं कि इस बार की दिल्ली यात्रा में आपने यह अंक मुझे खुद से दिया)