संगीत नाटक अकादमी के अवॉर्ड्स की घोषणा हुई। अलग-अलग कैटगरी में कई नाम सामने आए। इनमें एक नाम अंजना पुरी का भी है। वो अंजना पुरी जो पिछले ढाई दशकों से रंगमंच की दुनिया को अपने संगीत की धुनों से समृद्ध कर रही हैं। उन्हें थियेटर म्यूज़िक के लिए 2016 का संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड दिया गया है। इस एलान के बाद से ही कुछ व्हाट्स एप ग्रुप और सोशल मीडिया पर हलचल तेज हो गई। बधाईयों का सिलसिला शुरू हो गया। इन सबके बीच टीम बदलाव ने उनसे बात करने की कोशिश की। पशुपति शर्मा और मोहन जोशी जब दिल्ली के द्वारका में अंजना पुरी जी के घर पहुंचे तो एक सहज मुस्कान के साथ उन्होंने स्नेहिल स्वागत किया और फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया।
टीम बदलाव ने सामान्य सा सवाल किया कि संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड मिलने के बाद कैसा लग रहा है। सहज मुस्कान के साथ अंजना पुरी ने कहा कि अच्छा लग रहा है। एक अजीब सा एहसास है। वो कहती हैं- मैं गाना गाती हूं, गाना सिखाती हूं। अपने वजूद के एक हिस्से की तरह संगीत रहा है और आज उसी हिस्से का सम्मान हो रहा है, सुखद एहसास है। और फिर अंजनाजी बोलती रही और हम नोट्स लेते रहे।
मेरी मां ने मुझे गाना सिखाया। मैं तब दिल्ली में रहती थी। 5-6 साल की थी तभी से संगीत की तालीम शुरू हो गई। गंधर्व महाविद्यालय से संगीत सीखा। रामपुर सदारंग परंपरा की उस्ताद सुलोचना बृहस्पति से गायकी सीखी। कॉलेज में भी संगीत ही मुख्य विषय रहा। पोस्ट ग्रेजुएट पूरा होने के बाद मैं संगीत पर आगे के शोध के लिए जर्मनी चली गई। जर्मनी से मैं हिंदुस्तान आती और यहां की शैलियों के बारे में रिसर्च सामग्री जुटाती। मुझे ये काफी अटपटा लगने लगा। मैं जर्मनी से वापस हिंदुस्तान लौट आई।
संगीत को लेकर कुछ अलग करने की मेरी तलाश और छटपटाहट बरकरार थी। मार्च 1993 में मैंने रंग-विदूषक ज्वाइन किया। यहां आकर मुझे एहसास हुआ कि रंगमंच में शास्त्रीय संगीत अपनी शास्त्रीयता के साथ बरकरार नहीं रह सकता। मेरे अंदर तोड़फोड़ शुरू हो गई। मैंने रंगमंचीय संगीत के लिए कुछ एक्सरसाइज डेवलप किए। उस वक्त एलबीटी और रंग-विदूषक के कलाकार साथ मिलकर नए प्रयोग कर रहे थे। छऊ नृत्य की गतियों का अभ्यास भी हो रहा था। हालांकि इन सबके बीच कलाकारों के संगीत की ट्रेनिंग को लेकर मैं अपनी उधेड़बुन के बावजूद जी-तोड़ मेहनत कर रही थी।
इसी दौरान रंग विदूषक के निर्देशक और प्रयोगधर्मी रंगकर्मी बंसी कौल (दादा) ने मुझे एक दिन संगीत को लेकर एक नया मंत्र दे दिया। बंसीजी ने कहा कि आप रंगकर्मियों को बैठकर संगीत क्यों सिखलाती हैं? खड़े होकर, मूवमेंट के साथ ध्वनियों और सुरों का अभ्यास कराएं। इसके बाद मैंने वॉयस, मूवमेंट और स्पेस को लेकर थियेटर संगीत के नए मुहावरे गढ़ने शुरू किए। कलाकारों की क्षमता के मुताबिक उनके लिए एकल और सामूहिक एक्सरसाइज तैयार किए।
थियेटर संगीत की मेरी इस यात्रा में प्रयोग के दौर चलते रहे। नब्बे के दशक के आखिरी सालों में मैंने काफी ट्रैवल किया। पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के कई शहरों में मैं गई। वहां के लोक आर्ट फॉर्म्स को करीब से देखा। वहां की लोक धुनों को सुना-समझा। लोक नृत्यों की शैलियों पर बारीकी से अध्ययन किया। इन सबका इस्तेमाल मैं थियेटर म्यूजिक में करती रही। पहले अभ्यास, फिर रंगकर्म, फिर अभ्यास, फिर रंगकर्म ये सिलसिला चलता रहा। खुशी की बात ये है कि इसके साथ-साथ बतौर म्यूजिक टीचर मैं अपनी एक मेथडॉलॉजी भी तैयार करती चली जा रही थी।
संगीत का अभ्यास और संगीत पर शोध ये दोनों साथ-साथ चलते रहे। मैंने 2008 में मद्रास यूनिवर्सिटी से Voice, Rhythm and Movement: Towards a Pedagogical Model for Training the Actor with Special Reference to Indian Music Traditions – विषय पर शोध किया और विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। साल 2015 में टैगोर स्कॉलरशिप के तहत Role of Contemporary Music in Modern Indian Theatre पर शोध किया। मैं अब भी खुद को संगीत की एक अध्येता मानती हूं और इस प्रक्रिया को यूं ही जारी रखना चाहती हूं।
कभी-कभी मुझे लगता है कि हिंदुस्तानी रंगकर्म में थियेटर म्यूजिक को अभी तक एक विधा के तौर पर अलग पहचान हासिल नहीं हो पाई है। हिन्दुस्तान में पहाड़, रेगिस्तान, नदियां, समुद्र अलग-अलग तरह के प्राकृतिक क्षेत्र हैं। अलग-अलग संस्कृतियां हैं। इन सबका संगीत भी अलहदा है। इस लिहाज से थियेटर संगीत का फलक कितना व्यापक है, आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं। नौटंकी, तमाशा, पंडवानी, अंकिया, तेरुकेतु ये सभी अलग-अलग लोक शैलियां थियेटर संगीत के अलग-अलग रूप के तौर पर देखे और समझे जा सकते हैं।
थियेटर म्यूज़िक के बारे में जब मैं सोचती हूं तो मेरे जेहन में एक अभिनेता की स्पीच, टोन और उतार-चढ़ाव का भी ग्राफ कौंधता है। केवल रंग-प्रस्तुतियों में दो-चार गाने ही संगीत नहीं हैं। ट्रेन की आवाज़, शहर का शोर, कल-कारखानों की ध्वनियां और किसी रूई धुनने वाला का रिद्म भी थियेटर संगीत का हिस्सा हो सकता है। थियेटर संगीत की परिभाषा और दायरे को लेकर अभी और भी चिंतन-मनन करने की जरूरत है। कुछ नाटकों का जिक्र करूं तो ‘जर्नी ऑफ फ्रीडम’ में प्रवीण कुमार गुंजन ने ध्वनियों का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। इसी तरह बी वी कारंथजी के नाटक ‘बाबूजी’ में नौटंकी गायकी की बारीकियां नज़र आ गईं थीं।
एक सवाल के जवाब में अंजना पुरी रंग विदूषक के पुराने दिनों में खो सी जाती हैं। वो बताती हैं, थियेटर म्यूजिक की उनकी यात्रा बतौर कम्पोजर और बतौर शिक्षक रंग विदूषक के साथ ही शुरू हुई। 1994 में ‘नैन नचैया’ के जरिए उन्होंने पहली बार म्यूजिक कम्पोज किया और इस प्रस्तुति के संगीत को जो सराहना मिली, उसने उन्हें नई ऊर्जा दी। ‘वो जो अक्सर झापड़ खाता है’ के संगीत में उन्होंने अपनी शास्त्रीय पृष्ठभूमि की वजह से राग भैरवी को संगीत का आधार बनाया। संगीत नाटकों में ‘कहन कबीर’ और ‘वतन का राग’ 1999-2000 के दौरान तैयार किए गए। इनका संगीत एक चुनौती भी रहा तो आनंद का स्रोत भी बना। कलाकारों की टोलियां नाचतीं-गातीं संगीत के दम पर दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करतीं।
अंजना पुरी की थियेटर संगीत की यात्रा रंग-विदूषक से शुरू जरूर हुई लेकिन उन्होंने देश के कई दूसरे समूहों के लिए भी संगीत दिया। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की कुछ प्रस्तुतियों में भी वो बतौर संगीत निर्देशक अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती हैं। थियेटर संगीत की संगीत अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित अंजना पुरी अपनी यात्रा को नया विस्तार देने को लालायित हैं। उनकी ख्वाहिश है कि वो देश के उन रंगकर्मियों के लिए संगीत तैयार करें जो साधन के अभाव संगीत निर्देशक को अफॉर्ड नहीं कर पाते। रिकॉर्डेड म्यूजिक को वो रंगमंच के लिए मुफीद नहीं मानती। उनका मानना है कि हर नाटक के लिए अपना संगीत तैयार होना चाहिए। जरूरत पड़े तो बाद की प्रस्तुतियों में इसका रिकॉर्डेड वर्जन इस्तेमाल हो, लेकिन रंग-संगीत की बुनियाद प्लेगरिज्म के भरोसे नहीं रखी जा सकती।