अनिल तिवारी
अनिल तिवारी के रंग अनुभवों की ये सीरीज बदलाव पर बीच-बीच में बाधित होती रही है। निजी व्यस्तताओं की वजह से तारतम्यता बना कर नहीं रख पाते हम, इसके लिए क्षमा। अभी हम जनवरी में फेसबुक पर साझा की गई टिप्पणियों पर ही अटके हैं। ख़ैर, नाटकों का मजा बार-बार मंचित होने में है, रंग अनुभवों का मज़ा भी जब आप पढ़ें तभी रस देता है। यही सोचकर ये अगली कड़ी।
मेरे द्वारा अभिनीत किया गया पहला नाटक ‘टी पार्टी’ था तो निर्देशित किया गया पहला नुक्कड़ नाटक ‘राजा का बाजा बजा’ था। इसके कुछ प्रदर्शन हमने स्टेज पर भी किये, पर इसे स्टेज से जोड़ना और यह बताना कि मैंने 18 बर्ष की उम्र से स्टेज प्ले डायरेक्ट करने शुरु कर दिये थे। यह एक बहुत बड़ी बेमानी होगी। वाकई में 18बर्ष की उम्र तक तो मैं स्टेज प्ले का क ख ग भी नहीं सीख पाया था और ना ही मुझे अभिनय के बेसिक्स ही क्लीयर हो पाये थे।
मेरे रंग अनुभव के 50 वर्ष –17
वैसे भी रंगमंच की दुनिया में मुझे आये मात्र तीन साल ही तो हुये थे। हाँ नुक्कड़ की बात दूसरी थी। मैं इससे पहले कई नुक्कड़ कर चुका था। फिर नुक्कड़ एक आन्दोलन है, यह मेरे समय में भी था और आज भी है। साथ ही आने वाले समय में भी रहेगा ही। इसके विषय बदल सकते हैं पर शैली में कोई खास परिवर्तन कभी नहीं हो सकता। यदि परिवर्तन करने का प्रयास किया भी गया तो वो इसके अस्तित्व को समाप्त करने जैसा ही होगा। यह एकदम सत्य है। इसलिये नुक्कड़ निर्देशित करने में मुझे किसी भी प्रकार की कठिनाई का सामना कभी भी नही करना पडा़। आने वाली पीढी से भी मै यही कहूँगा कि यदि आप निर्देशन करना चाहते हैं तो पहले नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन करें और यह क्रम कम से कम पाँच साल का तो होना ही चाहिये। साथ ही साथ रंगमंच पर अभिनय भी करते रहें पर किसी योग्य निर्देशक के साथ। जब आप यह सब कर लें तब, एकांकी नाटकों का निर्देशन प्रारम्भ करें।
पहले कहानी और कैरेक्टर को अच्छी तरह से समझने की कला को विकसित करें। तभी नाटक की तकनीकी की शिक्षा प्राप्त कर, पूर्ण अंकीय नाटकों के निर्देशन में कदम रखें। मैंने भी ऐसा ही किया था। अपने गुरु श्री ब्रज मोहन शाह जी के सानिध्य में रह कर।जिन्हें नाट्य जगतबी एम शाह के नाम से जानता है।
खैर, लौटते हैं बीआईसी की ओर। नाटक ‘किसका हाथ’ का प्रदर्शन होना था, जिसका निर्देशन विश्व के जाने माने कोरियोग्राफर श्री प्रभात गांगुली ने किया था। हम सभी उन्हें प्रभात दा या फिर मात्र दादा के नाम से जानते हैं। दादा मतलब प्रभात दा ही हुआ करते थे। उत्तर भारत में सिर्फ दादा कहने का अर्थ था प्रभात दा (रंगमंच के संदर्भ में)। यह भी सत्य है कि जब तक प्रभात दा ग्वालियर में रहे, वही अकेले दादा थे। प्रभात दा के ग्वालियर से भोपाल चले जाने के बाद ग्वालियर रंगमंच की दुनियाँ के सभी रंगकर्मी मुझे दादा नाम से सम्बोधित करने लगे। मुझसे दुगनी -तिगुनी उम्र के लोगों ने अचानक ही मेरे पैर छूने भी प्रारम्भ कर दिये। इसे मैं ईश्वर का एक चमत्कार ही कहूँगा।
पता नहीं प्रभात दा के जाने के बाद क्या घट गया कि ग्वालियर की आम जनता का मेरे प्रति अचानक से अथाह प्रेम उमड़ पड़ा। मेरे द्वारा निर्देशित नाटकों के प्रदर्शन हाऊसफुल जाने लगे। यहाँ तक कि कुछ नाटकों में लोगों ने ब्लैक में भी टिकिट बेचे थे, ऐसा लोगों ने मुझे बाद में बताया था। प्रभात दा का ग्वालियर से जाना, ग्वालियर के लिये एक महान क्षति थी वहीं मेरे लिये उपलब्धि का नया दौर शुरू हो गया था। दादा के ग्वालियर छोड़ने की सम्पू्र्ण जानकारी और कारणों का जिक्र मैं आगे जब संदर्भ आयेगा, तब करुंगा।
फिलहाल बीआईसी द्वारा मंचित ‘किसका हाथ’ नाटक का जिक्र करता हूँ। तो इस नाटक का निर्देशन दादा गांगुली ने किया था और यह प्रभात दा द्वारा निर्देशित पहला नाटक था। इससे पहले प्रभात दा ने कोई भी नाटक निर्देशित नहीं किया था। वो विश्व विख्यात कोरियोग्राफर थे, पर नाट्य निर्देशक नहीं थे। और यह सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ कि दादा द्वारा निर्देशित पहले नाटक का मैं अहम हास्य अभिनेता था। पूरी रिहर्सल में दादा मुझसे बहुत परेशान रहते थे क्योंकि मैं बहुत ही उद्दण्ड था और बहुत ही अनुशासनहीन था। उसका मुख्य कारण रिहर्सल से पहले और रिहर्सल के बाद की बाहरी गतिविधियां थीं, जिनका प्रभाव रिहर्सल पर भी साफ दिखाई देता था। कई बार तो ऐसी नौबत आ गई कि दादा से मेरा झगड़ा हो गया और उन्हें रिहर्सल छोड़ कर बीच से जाना पड़ा, फिर कभी वापस न आने की कह कर। पर श्री के सी वर्मा किसी भी तरह दादा को मना कर वापस लाते रहे। दादा बार बार जाते रहे और वो मना मना कर लाते रहे और नाटक अपने प्रदर्शन की तारीख तक तक आ ही गया।
जैसा सभी नाटकों के प्रदर्शन से पहले होता था। दस दिन पहले से मिल से कारपेंटर्स की टीम नाटक का सेट बनाने के लिये आ जाया करती थी सो आ गई। मैं,अश्वनी शर्मा और आनन्द बिरमानी की ड्यूटी भी टैगोर हाल में कारपेंटर्स के साथ लगा दी गई थी। रात के दो बज रहे थे। सभी लोग काम करते करते थक कर सो गये थे, पर जाने क्या हुआ कि मैं अचानक जाग गया और हॉल में टहलने लगा। नींद थी कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैंने देखा कि मुख्य कारपेंटर साहब के तकिये के नीचे से लाल परी झांक रही है, शायद अध्धी थी। मुझे जाने क्या सूझी कि मैंने तरकीब से तकिये के नीचे से लाल परी को अपने कब्जे में ले लिया और आव देखा न ताव पूरी बोतल गले के नीचे उतार दी। पहले तो थोड़ी दिक्कत हुई पर जल्दी में था कि कहीं सभी जाग न जायें, इसलिये जल्दी जल्दी सारी पी गया।और खाली बोतल को फिर दुबारा से वहीं रख दिया जहाँ से भरी बोतल उठाई थी। और चुप चाप से जा कर अपनी रजाई में घुस गया।
अनिल तिवारी। आगरा उत्तर प्रदेश के मूल निवासी। फिलहाल ग्वालियर में निवास। राष्ट्रीय नाट्य परिषद में संरक्षक। राजा मानसिंह तोमर संगीत व कला विश्वविद्यालय में एचओडी रहे। आपका जीवन रंगकर्म को समर्पित रहा।