ब्रह्मानंद ठाकुर
बीफ को लेकर हमारे देश में सियासत का घमासान जारी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सार्वजनिक मंच से इस मामले में भले ही गो-रक्षकों की चाहे जितनी लानत मलानत करें , सच्चाई यह है कि गो रक्षकों की गुंडागर्दी लगातार बढता ही जा रही है। हाल की दो घटनाएं गोरक्षकों के बढते मनोबल के ज्वलंत उदाहरण हैं। इनमें एक घटना बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले की है और दूसरी छत्तीसगढ के दुर्ग जिले की, जहां बीजेपी नेता के गौशाला में हफ्ते भर में डेढ सौ गायों की मौत हो गयी। ये दोनों खबरें यही साबित करती हैं कि मुद्दा गो रक्षा का नहीं, एक खास समुदाय के लोगों को आतंकित करने का है।
बचपन से पढ़ते आ रहा हूं कि गाय हमारी माता है। कभी इसमें हमें बुराई भी नज़र नहीं आई, क्योंकि गाय बिना किसी भेदभाव के हमें अपना पौष्टिक दूध देती है। पिछले कुछ वक्त से वही गाय विवादों की धुरी में है क्योंकि कुछ लोग अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए बड़ी ही चालाकी से गाय को जाति और धर्म में बांट रहे हैं। मसलन अगर मुसलमान गाय ले जा रहा है तो ये मान लिया जायेगा कि वो उसे काटने ले जा रहा है, लिहाजा गौरक्षा के नाम पर कुछ ‘आतंकी’ सोच के लोग इंसानियत की हत्या करने में भी संकोच नहीं करेंगे। अगर किसी हिंदू की गौशाला में सैकड़ों गायें दम तोड़ दें तो किसी की कान पर जूं तक नहीं रेंगता।
कहा जा रहा है कि पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के दुर्ग में गौशाला में 250 से ज्यादा गायें मर गई वो भी भूख की वजह से। ना तो तथाकथित हिंदूवादी संगठनों ने कोई हो हल्ला मचाया और ना ही गौरक्षा के नाम पर धर्म विशेष पर हमला करने वाले ‘गोरक्षगुंडों’ के लाठी-डंडे निकले। जिस शख्स की गौशाला में गायों ने दम तोड़ा उसका नाम हरीश वर्मा है और वो बीजेपी का नेता रहा है। हालांकि हरीश वर्मा को पुलिस ने विश्वासघात और अनदेखी करने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, लेकिन जेल जाने से पहले हरीश वर्मा ने जो बयान दिया वो काफी चौंकाने वाला था।
हरीश वर्मा के मुताबिक राज्य में उनकी पार्टी की सरकार है और गौशाला के लिए सरकार से सालाना 10 लाख रूपये मिलते थे जो पिछले दो साल से नहीं मिला है। वहीं गौसेवा आयोग के अधिकारी का कहना है कि गौशाला की देख रेख में लापरवाही बतरने की वजह से फंड रोक दिया गया। मतलब साफ है, गायों के नाम पर छत्तीसगढ़ में पैसों का खूब खेल हो रहा है। अगर सरकार गायों के लिए फंड देती ही है तो फिर गौशाला को ही टेकओवर क्यों नहीं किया गया, क्यों गायों को जानबूझकर मरने के लिए छोड़ दिया गया । क्या गायों की मौत के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है।
अब जरा बिहार का एक उदाहरण लीजिए। पश्चिम चम्पारण के एक गांव में गो रक्षकों की उग्र भीड़ ने बीफ के कथित आरोप में अल्पसंख्यक समुदाय के 7 लोगों को उनके घरों में घुसकर बुरी तरह से पिटाई कर दी। हमारी पुलिस गुंडों को पकड़ने की बजाय उल्टे पीडितों को ही भावनाओं को आहत करने के कथित आरोप में गिरफ्तार कर ले गई। दरअसल गांव के एक शख्स का बछड़ा गायब हो गया और गांव में किसी ने अफवाह उड़ा दी की पड़ोस में रहने वाले एक खास समुदाय के लोग उसे मारकर खा गए। फिर क्या था भारत माता की जय के नारे लगे और बछड़े के लिए लोग इंसान का खून बहाने पर आमादा हो गए।
हैरानी की बात तो ये है कि जब देश में गोरक्ष गुंडे आतंक मचाते हैं और लोगों की हत्या करते हैं तो देश के प्रधान सेवक सिर्फ आंसू बहाकर अपना काम चला लेते हैं। सच तो ये है कि हमारे राजनेताओं को ना गाय से मतलब है ना इंसान से उन्हें मतलब है तो बस राजनीति से। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद न केवल देश से मांस का निर्यात बढा है।तथ्य तो यही है कि हमारा देश ब्राजील और आस्ट्रेलिया के बाद तीसरा सबसे बड़ा मांस निर्यातक देश है। 2016 में भारत ने 1.09 करोड़ टन बीफ का निर्यात किया। 2026 तक 1.24 करोड़ टन बीफ निर्यात का अनुमान है। ( स्रोत –खाद्य एवं कृषि संगठन तथा आर्थिक सहयोग संगठन)। आम धारणा है कि यह निर्यात ज्यादातर मुसलमान ही करते हैं लेकिन सच्चाई है कि देश के सबसे बडे 4 मांस निर्यातक हिन्दू हैं ।
अब एक नजर महात्मागांधी की जन्मस्थली गुजरात पर भी डाल लें ताकि इस गाय वाली सियासी चाल को समझने में थोड़ी आसानी हो। यहां लम्बे समय तक नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री रहे। नशाबंदी काफी पहले से लागू है लेकिन नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद गुजरात में मांस का उत्पादन बढ़ गया। आंकड़ों पर गौर करें तो साल 2001-02 में मांस का सालाना निर्यात जहां 10 हजार 600 टन था, वहीं 2011-12 में बढ़ कर 22 हजार टन हो गया। समय आ गया है कि हम सभी इस सियासी चाल को गहराई से समझें और देश की एकता अखंडता के सूत्र को कमजोर हो कर टूटने बिखरने से बचाने के लिए आगे आएं।
ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।