अखिलेश्वर पांडेय
जिसके पास सत्ता है
पावर
पैसा है
हांक रहा सबको
एक ही चाबुक से
और हम
अजान और अरदास पर बहस में उलझे हैं
देवी-देवताओं की पूजा कर रहे
उनकी कृपा पाने के लिए नहीं
उनके कोप से बचने के लिएकभी दशहरा
कभी दीवाली
कभी मुहर्रम
कभी रोजा
कभी बैसाखी
कभी क्रिसमस
त्योहारों की फेहरिश्त खत्म ही नहीं होती…
न ही खत्म होते हैं हमारे दुखदरअसल, ये त्योहार ही हमारे
दुख के भागीदार हैं
वरना, विसर्जन तो एक दिन
सभी प्रतिमाओं का होता ही है
उसके पहले मनाते हैं जश्न
सिंदूर खेला से लेकर माघ मेला तक
हरिद्वार से लेकर अजमेर तक…
यही है मरनासन्न आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था की तस्वीर जिसे अखिलेश्वर पाणडेय जी ने अपनी कविता में खीची है। वास्तव मे वर्तमान समय हर दृष्टिकोण से ठूठ बन चुका है। इसमें उम्मीदों के किसल कहां से फूटे?