मरखइया गाय अब हूरपेटती नहीं, जाने कहां चली गई

मरखइया गाय अब हूरपेटती नहीं, जाने कहां चली गई

cow

दृगराज मधेशिया

मोदी जी ने जब गौ रक्षकों के वेश में छिपे लोगों के चेहरों से नकाब हटाई तो बहुतों को मिर्ची लगी। इसकी जलन अभी कई महीनों तक महसूस होगी। थोड़ी सी मिर्ची मुझे भी लगी। मोदी जी ने ये क्‍या कह दिया। गौ वंशो को कटने से बचाने के लिए हमारे गौ रक्ष्‍ाकों की नीयत पर ही उंगली उठा दी। मन में उथल-पुथल होने लगी। गांव के वो पुराने दिन याद आने लगे जब हमारी माताजी पहली रोटी गउ माता को डालने के लिए हमें भेज देती थीं। ज्‍यादा नहीं 30 साल पहले की बात है। उस समय हमारे गांव की आबादी 5 हजार रही होगी। शनिवार को श्रीराम बाजार की रौनक गाय, बैल और बछड़ों से होती थी। दूर दूर से लोग अच्‍छी किस्‍म के गायों और बैलों को खरीदने आते थे। हो सकता हो इनमें से कुछ स्‍लाटर हाउस में भी जाते हों पर अधिकतर बैलों की खरीद बैलगाड़ी और खेत में जुताई के लिए की जाती थी। गायों की कीमत उनके दूध देने की क्षमता पर तय होती थी।

बनियों का हमार मोहल्‍ला। सबका अपना अपना व्‍यवसाय पर सभी गौ सेवक। उस समय दो तीन घरों को छोड़ सभी के दरवाजों पर गाय बंधी होती थी। शंकर चाचा की मरखइया गाय पूरे मोहल्‍ले में बदनाम थी। क्‍या मजाल कि कोई उसके पास से गुजर जाए और वो हूरपेटे नहीं। खूंटा तुड़ाकर भागने में सबसे ज्‍यादा आगे थी लक्ष्‍मी चाचा की गाय। उसके गले में ही खूंटा लटका दिया गया। सबसे ज्‍यादा सीधी गाय थी रजिंदर चाचा की। हम लोग शाम को रोटी देने उसी को जाते थे। अपने हाथ से खिलाते और जब अपने खुरदरी जीभ से वो हमारे हाथों को चाटती तो एक अजीब सी खुशी महसूस होती थी। शाम को स्‍कूल से लौटते वक्‍त का नजारा बड़ा मस्‍त होता था। चौराहे से गांव की ओर आने वाली सड़क पर सिर्फ गायें ही दिखती थीं। गायों के पीछे और झुंड के बीच में हुर्रररर हट करते हमारे सहपाठी भी दिख जाते थे। ये वो साथी थे जो गाय चराने के लिए दोपहर की छुट़टी के बाद ही बंक मार देते थे।

ये हमारे गांव के यादव थे। गाय भैंसों के मामले में ये धनी थे। बनियों के दरवाजों पर एक से दो गाय ही रहती थीं लेकिन इनके यहां तो घारी भरी होती थी जर्सी, देशी गायों से। इन्‍हीं के यहां के बैल हमारे खेतों की जुताई करते थे। गाय वाले घरों में एक समानता थी, अधिकतर कच्‍चे थे। हमारे मोहल्‍ले में भी जो मकान कच्‍चे थे उनके दरवाजों पर गाय जरूर बंधी रहती। बच्‍चे बड़े होने लगे। दिल्‍ल्‍ाी से लुधियाना और सऊदी से पैसे आने लगे। मकान पक्‍के होते गए और गाय के प्रति हमारी नीयत कच्‍ची होती गई। धीरे धीरे दो मंजिली इमारतें खड़ी होतीं गई और गउ माता बेघर। विकास का पहिया यहीं नहीं थमा। यादव टोले के मकान तेजी से पक्‍के होने लगे। जिन घरों के सामने बड़ी बड़ी घारियां थी वहां रंभाने के लिए एक गाय भी नहीं थीं। अब हमारे मोहल्‍ले में एक भी कच्‍चा मकान नहीं है। गाय भी नहीं है। यहा गायों को किसी ने नहीं काटा। हम गायों से कट गए। दीवारें पक्‍की हो गईं और नीयत कच्‍ची।


drigraj madheshia

दृगराज मधेशिया,  पेंटर, सिंगर, फोटग्राफर, टीचर, प्रोग्रामर, कवि, लेखक, ब्लॉगर, जर्नलिस्ट। 

One thought on “मरखइया गाय अब हूरपेटती नहीं, जाने कहां चली गई

  1. कभी यह कहावत खेती -किसानी को महिमामंडित कर ती थी —-“उत्तम खेती मध्य्म वान निर्घिन सेवा भीख निदान”आज खेती अलाभकारी हो कर निर्घिन हो गयी है । खेती की उपज से उसकी लागत भी पूरी नही होती ।आखिर क्या करे किसान ?

Comments are closed.