पिता द्वारा
आपने आस पास खींचे
गए वृत्त में बंधी
गाय की तरह
पगहे में लवराई लड़कियां
जा सकती हैं दूर तक टूंगते हुए,
हरे भरे घास के मैदानों में
पगहे की सीमा समाप्त होते ही
लौट आती हैं रंभाती हुई
आँखों से छलकाती स्नेह का प्रतिदान
वृताकार मैदानों का चौरस हो जाना
हरा भरा होना,
पगहे का मैदानों के आखिरी छोरों तक
विस्तारित होते जाना
स्नेह में दया
प्रत्युत्तर में कृतज्ञता
ये तय होते हैं
सशर्त स्नेह के नए
अलिखित मापदंड
अपने मन पर महसूसती हुई
सीमा रेखाओं की खरोंचें
वे स्वांग करती हैं
असीमित होने के सुख
से अपरिचय का
परिधियों की रेखाओं को
स्वीकारते हुए अपनी हथेली पर
वे उसे विलीन मान लेती हैं अपनी
भाग्यरेखा से,
वे जानती हैं, बेहतर तरीके से
रेखाएं निर्धारित करती हैं सीमा
खुद सीमाओं में बंधे होने पर भी
वो हथेली पर हों या की
किसी वृत्त की परिधि पर
दरअसल, वे सच नहीं बोलतीं
खुद से बोलतीं हैं एक बहुत बड़ा झूठ
भले से जानती हैं…
सच बोल कर भी क्या होगा?
मृदुला शुक्ला। उत्तरप्रदेश, प्रतापगढ़ की मूल निवासी। इन दिनों गाजियाबाद में प्रवास। कवयित्री। आपका कविता संग्रह ‘उम्मीदों के पांव भारी हैं’ प्रकाशित। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपीं और सराही गईं।
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