ब्रह्मानन्द ठाकुर
अब जब बैल ही नहीं रहे तो बैलगाड़ी की बात क्यों?सवाल वाजिब है।हमने आसमान में उड़ने के ख्वाब में अपनी जमीन छोड़ दी। और विकास की अंधी दौर में हमसे अपनी जमीन ,अपना आधार जब छिन गया तो हम अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए परावलम्बी हो गये। कभी यह बैल गाड़ी हमारी खेती -किसानी में मदद तो करती ही थी ,लोग इसे किराए पर चलाकर कुछ आमदनी भी कर लिया करते थे।मैं तब की बात करता हूं जब गांव में ट्रैक्टर और छोटे -बडे मालवाहकों का प्रवेश नहीं हुआ था। हर किसान के दरबाजे पर अपना बैल और कठही बैलगाड़ी हुआ करती थी। मेरे दरबाजे पर भी थी।मैं उस बैलगाड़ी पर सवार होकर अनेकबार मतलुपुर का शिवरात्रि मेला देख चुका हूं।1967 में मेरा जब विवाह हुआ तब मैं तो कडाचोपी (पालकी)पर गया था ,बरातियों की सवारी यही बैलगाड़ी थी।गांव के निमंत्रित लोग भी अपनी -अपनई बैलगाड़ी से ही बारात गए थे।कुछ साइकिल वाले भी थे।तब गांव में किसी के पास मोटरसाइकिल नहीं थी। उससे पहले सम्पन्न का बड़ा क्रेज था।इक्के-दुक्के रईस जमींदारों के पास सम्पन्न थी। सम्पन्न भी एक तरह की बैलगाड़ी ही होती थी लेकिन इससे सिर्फ कहीं आने -जआनए का काम लिया जाता था।हां ,घोड़े से चलने वाली एक्का और बग्घी भी थी मगर वह काफी धनी रईसों का वाहन हुआ करता था।
70 के दशक में गांव टायर गाड़ी आई।इसने बैलगाड़ी को रिप्लेस करना शुरू कर दिया।टायर गाड़ी कठही बैलगाड़ी से काफी महंगी थी, मगर थी उससे आरामदायक।उसका पहिया टायरवाला और उसमें बौल- बैरिंग लगा होता था,इसलिए बैल को उसे खींचने में आसानी होती थी। इसे बनवाने में लकड़ी को यदि छोड़ दिया जाए तो सारा सामान बाज़ार से खरीद कर लाया जाता था। लोग बढई से अपने दरबाजे पर टायर गाड़ी बनवाते थे।इसके विपरित कठही बैलगाड़ी बनाने का सारा समान हमारा स्थानीय होता था।सिर्फ लोहे का धूरा और उसमें लगने वाला गजारा बाजार से खरीदना पड़ता था। बैलगाड़ी बनाने के लिए ताड़ या शीशम की लकड़ी का फड बनाया जाता था।इसको आप बैलगाड़ी का चेसिस कह सकते हैं। उसी फड पर लकड़ी की दो चौड़ी पट्टी (पीढ़िया) रख रस्सी या तार से बांध दिया जाता।फड के नीचे लकड़ी के फ्रेम में धूरा सेट कर दिया जाता और धूरा के दोनों किनारे लकड़ी का पहिया लगा दिया जाता।कुछ लोग पहिए की मजबूती के लिए लुहार से उसके ऊपर लोहे की पत्ती मढवा देते जिसे हाल चढ़ाना कहते हैं।लुहार लोहे की पत्ती को गोलाकार बना कर उसे खूब गर्म करता और दो आदमी की सहायता से उस पत्ती को पहिए पर चिमटा के सहारे चढ़ा कर ऊपर से ठंडा पानी डालता। पत्ती पहिया से खूब कस कर चिपट जाती थी। बैलगाड़ी के कुछ पार्ट्स का नाम मुझे अब भी याद है।पहिया के बीचों बीच नाह होता था।इस नाह में जगह -जगह छेद कर उसमें खुटरी ठोक पुठृठीसे जोड़ कर पहिए को गोल आकार दिया जाता।पुठृठी करीब 6ईंच चौड़ी ,डेढ़ फीट लम्बी अर्ध चंद्राकार आकृति की होती थी, जो आपस में गोलाकार जुड़ी रहती थी।इसमें शीशम की लकड़ी का ही प्रयोग होता था। फड़ के अगले भाग में लकड़ी का जुआ होता,जिसके दोनों किनारे पतले पतले छेद कर दिए जाते थे। जुआ में बैल जोतते समय उसके दोनों छेद में बांस का बना कनइल डाल दिया जाता। दोनों फड के बीच की जगह में बांस की पट्टी बिछा कर उसे धूरा , और पीढ़ियां के सहारे कलात्मक तरीके से रस्सी से बुन दिया जाता ताकि उसपर पुआल वगैरह बिछा कर लोग आराम से बैठ सकें।बैलगाड़ी पर जब कनिया की विदागरी होती तो ऊपर में बांस की फट्टी लगा ,ओहार तान दिया जाता।यह तो आप तीसरी कसम में पढ़ ही चुके होंगे।बैलगाड़ी से सुरक्षित आवागमन के लिए उसके दोनों तरफ खुटरी के सहारे फड के ऊपर बांस के फठ्ठी की चचरी बुनी रहती थी जो ऊपर में बल्ला से जुड़ा होता ।
बैलगाड़ी के चालक गर्मी के मौसम में तीन -चार बार धूरा पर खानन चढ़ाते थे।इसके लिए पहिया को निकाल कर धूरा से पुराना कचरा साफ कर उसके ऊपर अंडी का तेल लगा ,फिर सन को अंडी के तेल या जरुआ मोबिल (तब गांव में कुछ लोग बाहर से जरुआ मोबिल लाकर बेंचते थे।मैंने बचपन मेंअपने पड़ोस के गांव के एक आदमी को जो तब वर्मा की लड़ाई से लौट कर घर आया था , उसे ऐसा ही मोबिल घूम घूम कर बेंचते देखा है) में चुपर कर धूरा पर लपेटते और फिर उसमें पहिया लगा देते थे। इसे ही खानन चढ़ाना कहते हैं।
इसी बैलगाड़ी से खेतों में गोबर रखना , बाहर से उपजाऊ मिट्टी लाकर खेत में डालना, पशुओं के लिए चारा और तैयार फसल घर लाने का काम होता था। कभी कभी गंगा-स्नान और तीर्थयात्रा भी।यह थी हमारी स्वदेशी तकनीक। व्यापारी भी बैलगाड़ी से ही बाजार से सामान मंगवाते और गांव से कृषि उत्पाद बाजार में पहुंचाते थे। विकास की दौर में अब हमारी यह बैलगाड़ी इसतरह लुप्त हो चुकी है कि अब कहीं खोजें नहीं मिल रही है।